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________________ ३०८ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड जंबूदीव-मणुसलोअ-रुजगपहुडओ किण्ण घेप्पते ? ण, अंगुलादिसु वि तधा गहणप्पसंगादो। ण च एवं, अव्ववत्थापसंगादो । संखेज्जदिमे काले दीव-समुद्दा हवंति संखेज्जा । कालम्मि असंखेज्जे दीव-समुद्दा असखेज्जा* ॥७॥ कालपमाणादो ओहिणिबद्धखेत्तपमाणपरूवणटुमेसा गाहा आगया। 'संखेज्जदिमे काले' संखेज्ज काले संतेत्ति भणिदं होदि। एत्थतणकालसद्दो संवच्छरवाचओ, ण कालसामण्णवाचओ; जहण्णोहिखेत्तस्स वि असंखेज्जदीवसमुद्दजोयणधणपमाणत्तप्पसंगादो। कालो संवच्छरवाचओ त्ति कधं णव्वदे? सामण्णम्मि विसेससंभवादो समयावलियामहत्त-दिवसद्धमास-मासपडिबद्धोहिखेत्तस्स परूविदत्तादो। संखेज्जेसु वासेसु ओहिणाणेण तीदमणागयं च दव्वं जाणंतो खेत्तेण कि जाणदि त्ति वुत्ते 'दीव समुद्दा हवंति संखेज्जा' तस्स ओहिणिबद्धक्खेते घणागारेण दुइदे संखेज्जाणं दीव-समुद्दाणं आया शंका - अर्ध और पूर्ण चन्द्र के आकाररूपसे स्थित भरत, जम्बूद्वीप मनुष्यलोक और रुच. कवर द्वीप आदि क्यों नहीं ग्रहण किये जाते हैं ? समाधान - नहीं, क्योंकि, ऐसा माननेपर अंगुल आदिमें भी उस प्रकारके ग्रहणका प्रसंग आता है। परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि, ऐसा माननेपर अव्यवस्थाका प्रसंग आता है। जहां काल संख्यात वर्ष प्रमाण होता है वहां क्षेत्र संख्यात द्वीप-समुद्रप्रमाण होता है और जहां काल असंख्यात वर्ष प्रमाण होता है वहां क्षेत्र असंख्यात द्वीप-समुद्रप्रमाण होता है । ७। कालके प्रमाणकी अपेक्षा अवधिज्ञानसे संबंध रखनेवाले क्षेत्रके प्रमाणका कथन करने के लिए यह गाथा आई है। ' संखेज्जदिमे काले ' अर्थात् संख्यात कालके होनेपर, यह उक्त कथनका तात्पर्य है । 'काल' शब्द वर्षवाची लिया गया हैं, कालसामान्यवाची नहीं लिया गया, क्योंकि, अन्यथा जघन्य अवधिज्ञानका क्षेत्र भी असंख्यात द्वीप-समुद्रोंके घनयोजन प्रमाण प्राप्त होगा। __ शंका - काल शब्द वर्षवाची है, यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? । समाधान - क्योंकि, कालसामान्य में विशेष कालका ग्रहण सम्भव है । और समय, आवलि, मुहूर्त, दिवस, अर्ध मास और माससे सम्बन्ध रखनेवाले अवधिज्ञानके क्षेत्रका निरूपण पहले कर आये हैं। अवधिज्ञानके द्वारा संख्यात वषों संबंधी अतीत और अनागत द्रव्योंको जानता हुआ क्षेत्रकी अपेक्षा कितना जानता है, ऐसा कहनेपर 'दीवसमुद्दा हवन्ति संखेज्जा ' यह वचन कहा है । उस अवधिज्ञानके क्षेत्रको घनाकार रूपसे स्थापित करनेपर वह संख्यात द्वीप-समुद्रोंके म. बं. १, प. २१. संखिज्जमि उ काले दीव-समहा वि हंति संखिज्जा1 कालंमि असंखिज्जे दीवसमद्दा उ भइअव्वा 11 नं. सू. गा. ५३. ॐ अप्रती 'संति इति पाठः1. आ-का-ताप्रतिष 'दिवसद्धमासपडि-' इति पाठ:1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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