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________________ ५, ४ , ३१ ) कम्माणुओगद्दारे पओअकम्मादीणं कालपरूवणा ( १२५ अंतोमहत्तं । उक्कस्सेण छावद्विसागरोवमाणि सादिरेयाणि। तवोकम्मं केवचिरं कालादो होवि? जाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं । उक्कस्सेण पुवकोडी देसूणा । इरियावहकम्मं केवचिरं कालादो होदि ? णाणेगजीवं* पडुच्च जहण्णेण एगसमओ। कुदो ? उवसंतकसायपढमसमए इरियावथकम्मेण परिणमिय बिदियसमए कालं काढूण देवेसु उववण्णम्हि एमसमयकालुवलंभादो। उक्कस्सेण अंतोमहत्तं । कुदो? उवसंत-खीणकसाएसु अंतोमुहुत्तमेत्तकालुवलंभादो। एवं मणपज्जवणाणीणं । णवरि जत्थ छावद्धिसागरोवमाणि भणिदाणि तत्थ देसूणपुवकोडी वत्तव्वा । किरियाकम्मस्स जहण्णण एगसमओ च. वत्तव्यो। केवलणाणीणं पओअकम्म-समो. दाणकम्म-इरियावथकम्म-तवोकम्माणि केवचिरं कालादो होंति ? णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा। एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं । उक्कस्सेण पुत्वकोडी देसूणा । एवं केवलदसणीणं पि वत्तव्वं ।। संजमाणुवादेण संजदसव्वपदाणं मणपज्जवभंगो। णवरि इरियावथकम्मकालो उक्कस्सेण पुवकोडी देसूगा । सामाइय-छेदोवट्ठावण०जहाक्खाद---परिहार० संजदाणं पओअकम्म-समोदाणकम्म--इरियावथकम्मतवोकम्म---किरियाकम्माणि केवचिरं कालादो होंति ? णाणा--- जीवकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय है, क्योंकि, जो जीव उपशान्तकषाय गुणस्थानके प्रथम समयमें ईर्यापथकर्मको प्राप्त होकर दसरे समयमें मरकर देव हो जाता है उसके एक समय काल प्राप्त होता है। उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि, उपशांतकषाय और क्षीणकषाय गुणस्थानोंम अन्तर्मुहुर्त मात्र काल प्राप्त होता है । इसी प्रकार मनःपर्ययज्ञानी जीवोंके सब पदोंका काल कहना चाहिय। इतनी विशेषता है कि जहां छयासठ सागरोपम काल कहा है वहां कुछ कम एक पूर्वकोटि काल कहना चाहिये और क्रियाकर्मका जघन्य काल एक समय कहना चाहिये। केवलज्ञानी जीवोंके प्रयोगकर्म, समवधानकर्म, ईर्यापथकर्म और तपःकर्मका कितना काल है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल अन्तर्महर्त है। उत्कृष्ट काल कुछ कम एक पूर्वकोटि है। इसी प्रकार केवलदर्शनी जीवोंके भी कहना चाहिये । विशेषार्थ- मनःपर्ययज्ञानी जीवके क्रियाकर्मका जघन्य काल एक समय उपशमश्रेणिसे उतार कर और अप्रमत्त अवस्थामें एक समय तक क्रियाकर्मरूपसे परिणमा कर बादमें मरण कराकर देव पर्याय में ले जानेसे प्राप्त होता है। __संयममार्गणाके अनुवादसे संयत जीवोंके सब पदोंका काल मनःपर्ययज्ञानके सब पदोंके कालके समान है । इतनी विशेषता है कि यहां ईर्यापथकर्मका उत्कृष्ट काल कुछ कम एक पूर्वकोटि है। सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, यथाख्यातसंयत और परिहारविशुद्धिसंयत जीवोंके प्रयोगकर्म, समवधानकर्म, ईर्यापथकर्म, तपःकर्म और क्रियाकर्मका कितना काल है ? * अ-आ-काप्रतिष ‘णाणाजीवं ' इति पाठः । .आ-ताप्रत्योः 'कम्माणि ', काप्रती त्रुटितोऽत्र पाठः 1 8 ताप्रती 'च' इति नास्ति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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