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________________ २२४ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड विवक्खियो मिस्सयं णाम । समसेडीए आगच्छमाणे सद्द-पोग्गले परघादेण अपराधादेण च सुणदि । तं जहा- जदि पराघादो पत्थि तो कंडुज्जुवाए गईए कण्णछिद्द पविट्ठे सह-पोग्गले सुणदि । पराघादे संते वि सुणेदि। कुदो? समसेडोदो परघादेण उस्सेडि गंतूण पुणो पराघादेण समसेडीए कण्णछिद्दे पविट्ठाणं सद्द-पोग्गलाणं सवणुवलंभादो। उस्सेडि गदसह-पोग्गले पुण परघादेणेव सुणेदि, अण्णहा तेसि सवणाणववत्तीदोए । एत्थ अण्णे आइरिया असद्द-पोग्गलेहि सह सुणेदि त्ति मिस्सपदस्सर अत्थं परूवेति । तण्ण घडदे, असह-पोग्गलाणं सोदिदियस्स अविसयाणं सवणाणुववत्तीदो* । असह-पोग्गले ण सुणेदि, सद्द-पोग्गले चेव सुणेदि, किंतु (असद्द पोग्गलसद्दे सुणेदि ति ण वोत्तुं सक्किज्जदे, तस्स अणुत्तसिद्धीदो कुदो? सव्वपोग्गलेहि) सव्वजीवरासीदो अणंतगुणेहि सव्वलोगो आउण्णो त्ति तंतजुत्तिसिद्धीए । उत्तं च भासागदसमसेडि सदं जदि सुणदि मिस्सयं सुणदि । ___ उस्से डिं पुण सदं सुणेदि णियमा पराघादे*।। ३ । एदस्स सोदिदियवंजणोग्गहस्स जमावारयं कम्मं तं सोदिदियवंजणोग्गहावरणीयं णाम। __ समाधान- परघात और अपरघात इस प्रकार द्विसंयोगरूपसे विवक्षित पुद्गलमिश्र कहलाता है। समश्रेणि द्वारा आते हुए शब्द-पुद्गलोंको परघात और अपरघात रूपसे सुनता है । यथा- यदि परघात नहीं है तो बाणके समान ऋजु गतिसे कर्णछिद्र में प्रविष्ट हुए शब्द-पुद्गलोंको सुनता है । परघातके होनेपर भी सुनता है क्योंकि, समश्रेणिसे परघात द्वारा उच्छेणिको प्राप्त होकर पुनः परघात द्वारा समश्रेणिसे कर्णछिद्र में प्रविष्ट हुए शब्द-पुद्गलोंका श्रवण उपलब्ध होता है । उच्छेणिको प्राप्त हुए शब्द-पुद्गल पुनः परघातके द्वारा ही सुने जाते हैं। अन्यथा उनका सुनना नहीं बन सकता है। यहांपर दूसरे आचार्य अशब्द-पुद्गलोंके साथ सुनता है, ऐसा मिश्रपदका अर्थ कहते हैं । परन्तु वह घटित नहीं होता, क्योंकि अशब्द-पुद्गल श्रोत्रेन्द्रियके विषय नहीं होते; अतः उनका सुनना नहीं बन सकता है । अशब्द-पुद्गलोंको नहीं सुनता है, किन्तु शब्द-पुद्गलोंको ही सुनता है। इसलिये अशब्द शब्दपर्यायसे सहित पुद्गलोंके साथ शब्दपुद्गलोंको सुनता है, ऐसा बोलना ठीक नहीं है; क्योंकि यह विना कहे सिद्ध है । कारण कि सब पुद्गलोंसे जो कि सब जीवराशिसे अनन्तगुणे हैं, सब लोक आपूर्ण है, इस प्रकार आगम और युक्तिसे सिद्ध है । कहा भी है - भाषागत समश्रेणिरूप शब्दको यदि सुनता है तो मिश्रको ही सुनता है । और उच्छेणिको प्राप्त हुए शब्दको यदि सुनता है तो नियमसे परघातके द्वारा सुनता है ।। ३ ।। इस श्रोत्रेन्द्रिय व्यंजनावग्रहका जो आवारक कम हैं वह श्रोत्रेन्द्रियव्यंजनावग्रहावरणीय अ-आ-काप्रतिषु ‘सरणाणुववत्तीदो', सुणेदिदो इति पाठ: ताप्रती · सर (व) गाणुववत्तीदो ' इति पाठःकाप्रती 'आइरिया असहपोग्गले ण सुणेदि सहपोग्गले मिस्सपदस्स ' इति पाठः* का-ताप्रत्योः 'समाणाणववत्तीदो ' इति पाठ:1* भासासमसेढीओ सई जं सुणइ मीसियं सुणइ 1 वीसेढी पूण सई सुणेइ णयमा पराघाए 11 नं. सू. गाथा ५. वि. भा. ३५१. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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