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________________ ५, ५, २७. ) पडिअणुओगद्दारे अत्थोग्गहावरणीयपरूवणा ( २२५ सुगंधो दुग्गंधो च बहुभेयभिण्णो घाणिदियविसओ । तेसु सुगंध दुग्गंध पोग्गलेसु आगंतूण अदिमुत्तय पप्फसंठाणद्विदघाणिदियम्मि पविठेसु जं पढममुप्पज्जदि सुगंधदुग्गंध दम्वविसयविण्णाणं सो घाणिदियवंजणोग्गहो णाम । तस्स जमावारयं कम्मत घाणिदियवंजणोग्गहावरणीयं णाम । तित्त-कडुव कसायंविल-महुरदव्वाणि जिभिदियविसओ। तेसु दम्वेसु बउलपत्तसंठाणद्विदजिभिदिएण बद्ध-पुट्ठ-पविट्ठअंगांगिभावगदसंबंधमुवगदेसु जं रसविण्णाणमुप्पज्जदि सो जिभिदियवंजणोग्गहो णाम तस्स जमावारयं कम्मं तं जिभिदियवंजणोग्गहावरणीयं णाम । कक्खड-मउअ-गरुअ-लहुअ-णिद्धल्हुक्ख-सीदुण्हदवाणि फासिदियस्स विसओ । एदेसु दम्वेसु संपत्तफस्सिदिएसु जं णाणमुप्पज्जवि तं फासिदियवंजणोग्गहो णाम । तस्स जमावारयं कम्मं तं फासिदियवंजणोग्गहावरणीयं णाम । चक्खिदियणोइंदिएसु वंजणोग्गहो पत्थि, पत्तत्थग्गहणे तेसि सत्तीए अभावादो। एवं वंजण्णोग्गहपरूवणा कदा तदावरणपरूवणा च । जं तं थप्पमत्थोग्गहावरणीयं णाम कम्मं तं छविहं ॥ २७॥ ,, कुदो ? सव्वेसु इंदिएसु अपत्तत्थग्गहणसतिसंभवादो। होदु णाम अपत्तत्थगहणं चक्खिदिय-णोइंदियाणं, ण सेसिदियाणं; तहोवलंभाभावादो ति? ण, एइंदिएसु फासिकर्म है। अनेक प्रकारका सुगन्ध और दुर्गन्ध घ्राणेन्द्रियका विषय हैं । उन सुगन्ध और दुर्गन्धवाले पुद्गलोंके अतिमुक्तक फूलके आकारवाली घ्राणेन्द्रियमें प्रविष्ट होनेपर जो सुगन्ध और दुर्गन्ध द्रव्यविषयक प्रथम ज्ञान उत्पत्र होता है वह घ्राणेन्द्रियव्यंजनावग्रह है। उसका आवारक जो कर्म है वह घ्राणेन्द्रियव्यंजनावग्रहावरणीय कर्म है । तिक्त, कटुक, कषाय, आम्ल और मधुर द्रव्य जिव्हा इन्द्रियके विषय है। उन द्रव्योंके बकुलपत्रके आकारवाली जिव्हा इन्द्रियके साथ बद्ध, स्पृष्ट और प्रविष्ट होकर अंगांगिभावरूपसे सम्बन्धको प्राप्त होनेपर जो रसका विज्ञान उत्पन्न होता है वह जिह वेन्द्रियव्यंजनावग्रह है। उसका जो आवारक कर्म है वह जिह वेन्द्रियव्यंजनावग्रहावरणीय कर्म है। कर्कश, मृदु, गुरु, लघु स्निग्ध, रुक्ष, शीत और उष्ण द्रव्य स्पर्शन इन्द्रियके विषय हैं। इन द्रव्योंके स्पर्शन इन्द्रियके साथ सम्बन्धको प्राप्त होनेपर जो ज्ञान उत्पन्न होता है वह स्पर्शनेन्द्रियव्यंजनावग्रह है। उसका आवारक जो कर्म है वह स्पर्शनेन्द्रियव्यंजनावग्रहावरणीय कर्म है। चक्षु इन्द्रिय और नोइन्द्रिय इन दोनोंमें व्यंजनावग्रह नहीं होता, क्योंकि, प्राप्त अर्थको ग्रहणकरनेकी उनकी शक्ति नहीं पाई जाती। इस प्रकार व्यंजनावग्रह और उसके आवरण कर्मकी प्ररूपणा की। जो अवग्रहावरणीय कर्म स्थगित कर आये थे वह छह प्रकारका है । २७ । क्योंकि, सभी इन्द्रियोंमें अप्राप्त अर्थके ग्रहण करने की शक्तिका पाया जाना सम्भव है। शंका - चक्षुइन्द्रिय और नोइन्द्रियके अप्राप्त अर्थका ग्रहण करना रहा आवे, किन्तु काप्रती ' आदीमुत्तय ' इति पाठ 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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