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________________ २२६ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड ( ५, ५, २७ दियस्स अपत्तणिहिग्गहणुवलंभादो। तदुवलंभो च तत्थ पारोहमोच्छणादुवलब्भदे। सेसिदियाणमपत्तत्थगहणं कुदोवगम्मदे? जुत्तोदो। तं जहा. धाणिदिय-जिब्भिदिय-फासिदियाणमुक्कस्सविसओ णव जोयणाणि । जवि एदेसिमिदियाणमुक्कस्सखओवसमगदजीवो णवसु जोयणेसु द्विववव्वेहितो विप्पडिय आगदपोग्गलाणं जिब्भाघाण-फासिदिएसु लग्गाणं रसगंध-फासे जाणदि तो समंतदो णवजोयणभंतरटिदमह भक्खणं तगंधजणिदअसादं च तस्स पसज्जेज्ज । ण च एवं, तिविदियक्खओवसमगदचक्कवट्टीणं पि असायसायरंतोपवेसप्पसंगादो । किंच-तिव्वखओवसमगदजीवाणं मरणं पि होज्ज, णवजोयणभंतरट्टियविसेण जिन्भाए संबंधेण घादियाणं णवजोयणब्भंतरदिदअग्गिणा दज्झमाणाणं च जीवणाणुववत्तीदो। किं च ण तेति महुरभोयणं पि संभवदि, सगक्खेत्तंतोट्ठियतियदुअ-पिचु मंदकडुइरसेण मिलिददुद्धस्स महुरत्ताभावादो । तम्हा सेसिदियाणं पि अप्पत्तग्गहणमत्थि ति इच्छिदव्वं । छण्णं पि अत्थोग्गहावरणीयाणं णामणिद्देसट्टमुत्तरसुतं भणदिशेष इन्द्रियोंके वह नहीं बन सकता; क्योंकि, वे अप्राप्त अर्थको ग्रहण करती हुई नहीं उपलब्ध होती हैं ? __समाधान - नहीं, क्योंकि, एकेन्द्रियोंमें स्पर्शन इन्द्रिय अप्राप्त निधिको ग्रहण करती हुई उपलब्ध होती है, और यह बात उस ओर प्रारोहको छोडनेसे जानी जाती है। शंका - शेष इन्द्रियां अप्राप्त अर्थको ग्रहण करती हैं, यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान – युक्तिसे जाना जाता है । यथा- घ्राणेन्द्रिय जिह वेन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रियका उत्कृष्ट विषय नौ योजन है । यदि इन इन्द्रियोंके उत्कृष्ट क्षयोपशमको प्राप्त हुआ जीव नौ योजनके भीतर स्थित द्रव्योंमेंसे निकलकर आये हुए तथा जिह वा, घ्राण और स्पर्शन इन्द्रियसे लगे हुए पुद्गलोंके रस, गन्ध और स्पर्शको जानता है तो उसके चारों ओरसे नौ योजनके भीतर स्थित विष्ठाके भक्षण करने का और उसकी गन्धके संघनसे उत्पन्न हुए दुःखका प्रसग प्राप्त होगा । परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि, ऐसा माननेपर इन्द्रियोंके तीव्र क्षयोपशम को प्राप्त हुए जीवोंका मरण भी हो जायगा, क्योंकि, नौ योजनके भीतर स्थित विषका जिह वाके साथ सम्बन्ध होनेसे घातको प्राप्त हुए और नौ योजनके भीतर स्थित अग्निसे जलते हुए जोवोंका जीना नहीं बन सकता है। तीसरे ऐसे जीवोंके मधुर भोजनका करना भी सम्भव नहीं है, क्योंकि, अपने क्षेत्रके भीतर स्थित तीखे रसवाले वृक्ष और नीमके कटुक रससे मिले हुए दूधमें मधुर रसका अभाव हो जायगा इसलिये शेष इन्द्रियां भी अप्राप्त अर्थको ग्रहण करती है, ऐसा स्वीकार करना चाहिये। ___अब छहों अर्थावग्रहावरणीयोंका नामनिर्देश करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं काप्रतौ ' सोदिदियस्स, ताप्रती ' सोदि ( पासिं ) दियस्स ' इति पाठ। * काप्रती 'सोदि-- दियाण-ताप्रती 'सोदि (पासि) दियाण-' इति पाठः 10 अ-आ-ताप्रतिष ' विप्पद्दिय' काप्रती विप्पदिय ' इति पाठः । अप्रतो 'गह', आ-काप्रत्योः 'गड' इति पाठः। . काप्रती तियदुअंच-' इति पाठः। ॐका ताप्रत्यो ' कडडुइ ' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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