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________________ ५.५, १०१. ) पर्याअणुओगद्दारे णामपय डिपरूवणा ( ३६५ सरीरे आदाओ होदितं आदावणामं । सोष्णप्रभा आतापः जस्स कम्मस्सुवएण सरीरे उज्जओ होदितं कम्ममुज्जोवं णामं । जस्स कम्मस्सुदएण भूमिमोट्ठहिय अणोदुहिय वा जीवाणमागासे गमणं होदि तं विहायगदिणामं । जस्त कम्मस्सुदएण जीवाणं संच रणासंचरण भावो होदि तं कम्मं तसणामं । जस्स कम्मस्सुदएण जीवाणं थावरतं होदि तं कम्मं थावरं णामं । आउ-तेउवाउकाइयाणं संचरणोवलंभादो ण तसत्तमत्थि, सिगमणपरिणामस्स पारिणामियत्तादो । जस्स कम्मस्सुदएण जीवा बादरा होंति तं बादरणामं । जस्स कम्मस्सुदएण जीवा सुहुमेइंदिया होंति तं सुहुमणामं । जस्स कम्मस्सुदएण जीवा पज्जत्ता होंति तं कम्मं पज्जत्तं णामं । जस्स कम्मस्सुदएण जीवा अपज्जत्ता होंति तं कम्मंमपज्जत्तं णाम । जस्स कम्मस्सुदएण एक्कसरीरे एक्को चेव जीवो जीवदितं कम्मं पत्तेयसरीरणामं । जस्स कम्मस्सुदएण एगसरोरा होवूण अनंता जीवा अच्छंति तं कम्मं साहारणसरीरं । जस्स कम्मरपुदएण रसादीणं सगसरूवेण केत्तियं पि कालमवद्वाणं होदि तं थिरणामं । जस्स कम्मस्सुदएण रसादीणमवुरिम + धादुसवेण परिणामो होदि तमथिरणाम । जस्स कम्मस्सुदएण चक्कवट्टि बलदेव- वासु देव तादिरिद्वीणं सूचया सवंकुसाविदादओ अंग-पंच्चमेसु उप्पज्जेति तं सुहणामं । जस्स कम्मस्सुदएणअसुहलक्खणाणि उप्पज्जंतित ममुहणामंजस्स कम्मस्सुदएण जीवस्स सोहग्गं कर्मके उदयसे शरीरमें आताप होता है वह आताप नामकर्म है । उष्णता सहित प्रभाका नाम आताप हैं। जिस कर्मके उदयसे शरीर में उद्योत होता है वह उद्योत नामकर्म है । जिस कर्मके उदयसे भूमिका आश्रय लेकर या विना उसका आश्रय लिए भी जीवोंका आकाश में गमन होता है वह विहायोगति नामकर्म है । जिस कर्मके उदयसे जीवोंके गमनागमन भाव होता है वह त्रस नामकर्म है । जिस कर्म के उदयसे जीवोंके स्थावरपना होता है वह स्थावर नामकर्म है । जल, अग्नि और वायुकायिक जीवोंमें जो संचरण देखा जाता है उससे उन्हें त्रस नहीं समझ लेना चाहिये; क्योंकि, उनका वह गमन रूप परिणाम परिणामिक होता है । जिस कर्मके उदयसे जीव बादर होते हैं वह बादर नामकर्म है । जिस कर्मके उदयसे जीव सूक्ष्म एकेन्द्रिय होते हैं वह सूक्ष्म नामकर्म है । जिस कर्मके उदयसे जीव पर्याप्त होते है वह पर्याप्त नामकर्म है । जिस कर्मके उदयसे जीव अपर्याप्त होते हैं वह अपर्याप्त नामकर्म है। जिस कर्मके उदयसे एक शरीरमें एक ही व जीवित रहता है वह प्रत्येकशरीर नामकर्म है। जिस कर्मके उदयसे एक हो शरीरबाले होकर अनंत जीव रहते हैं वह साधारणशरीर नामकर्म है । जिस कर्मके उदयसे रसादिक धातुओंका अपने रूपसे कितने ही काल तक अवस्थान होता है वह स्थिर नामकर्म है । जिस कर्मके उदयसे रसादिकोंका आगेकी धातुओं स्वरूपसे परिणमन होता है वह अस्थिर नामकर्म है । जिस कर्मके उदयसे चक्रवर्तित्व, बलदेवत्व और वासुदेवत्व आदि ऋद्धियोंके सूचक शंख, अंकुश और कमल आदि चिन्ह अंग-प्रत्यंगों में उत्पन्न होते हैं वह शुभ नामकर्म है । जिस कर्मके उदयसे अशुभ लक्षण उत्पन्न होते हैं वह अशुभ नामकर्म है। जिस कर्मके उदयसे जीवके सौभाग्य होता है वह >अ आ ताप्रतिषु ' मुवरिमा' इति पाठः (काप्रतौ तु वाक्यमेवेदं नोपलभ्यते ) षट्खं. पु. ६, पृ. ६३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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