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________________ ३२० } छक्खंडागमे वग्गणा-खंड ( ५, ५, ५९. काण सव्वत्थ जोजेयव्वो । तं जहा- सक्कीसाणा संगविमाणसिहरादो जाव पढमपुढवित्ति सव्वं लोगणालि पसंति । सणक्कुमारमाहिंदा जाव बिदियपुढवित्ति सव्वं लोगणालि पसंति । एवं सव्वत्थ वत्तव्वं, अण्णहा णवाणुद्दिस पंचाणुत्तर विमाणवासियदेवाणं सव्वलोगणालिविसयं दंसणं होज्ज । ण च एवं, सग-सगविमाणसिहरादो उवरि गहणाभावाद नवाजुद्दिस चत्तारिअणुत्तरविमाणवासियदेवाणं सत्तमपुढ विहेट्टिमतलादो ट्ठा गहणाभावादी च । सव्वसिद्धिविमाणवासियदेवा विण सव्वलोगणालि पसंति, सगविमाणसिहरादो उवरिमभागकचूणिगिवीसजोहणबाहल्ल रज्जुपदर परिहीणसयललोगणालीए गहणादो। णवाणुद्दिस चत्तारिअणुत्तरविमाणवासियदेवा सत्तमपुढ विहेट्ठिमतलादो हेट्ठाण पेच्छति त्ति कुदो गव्वदे ? अविरुद्धाइरियवयणादो। णवाणुद्दिस चत्ता.रिअणुत्तर विमाणसम्बट्ट सिद्धिविमाणवासियदेवा सिहरादो हेट्ठा जाव अंतिमवादवओत्ति रज्जुपदरविक्खंभेण सव्वलोगणालि पेच्छति त्ति के वि आइरिया भणति तं जाणिय वत्तव्वं । सव्वे वि कालादो किंचूणपल्लं जाणंति । एसो वि गुरुवएसो चेव, वट्टमाणकाले शब्द अन्तदीपक है, ऐसा जानकर उसकी सर्वत्र योजना करनी चाहिए । यथा -- सौधर्म और ईशान कल्पवासी देव अपने विमानके शिखरसे लेकर पहली पृथिवी तक सब लोकनालीको देखते हैं । सानत्कुमार और माहेन्द्र कल्पवासी देव दूसरी पृथिवी तक सब लोकनालीको देखते हैं। इसी प्रकार सर्वत्र कथन करना चाहिए । कारण कि इसके विना नौ अनुदिश और पांच अनुत्तर विमानवासी देवोंके सब लोकनालीविषयक अवधिज्ञान प्राप्त होता है । परंतु ऐसा है नहीं, क्योंकि, प्रथम तो अपने अपने विमानोंके शिखरसे ऊपरके विषयका ग्रहण किसीको नहीं होता । दूसरे, नौ अनुदिश और चार अनुत्तर विमानवासी देवोंके सातवीं पृथिवीके अधस्तन तलसे taar ग्रहण नहीं होता। तीसरे, सर्वार्थसिद्धि विमानवासी देव भी सब लोकनालीको नहीं देखते हैं, क्योंकि, उनके अपने विमान शिखर से ऊपरका कुछ कम इक्कीस योजन बाहुल्यवाले एक राजुप्रतररूप क्षेत्र के सिवा सब लोकनाली क्षेत्रका ग्रहण होता है । शंका- नौ अनुदिश और चार अनुत्तर विमानवासी देव सातवीं पृथिवीके अधस्तन तलसे नीचे नहीं देखते हैं, यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान - वह सूत्र विरुद्ध आचार्योंके वचनसे जाना जाता है । अदिश और चार अनुत्तर विमानवासी देव तथा सर्वार्थसिद्धि विमानवासी देव अपने विमानशिखर से लेकर अंतिम वातवलय तक एक राजुप्रतरविस्तार रूप सब लोकनालीको देखते हैं, ऐसा कितने ही आचार्य उक्त गाथासूत्रका व्याख्यान करते हैं; सो उसका जानकर कथन करना चाहिए । ये सभी देव कालकी अपेक्षा कुछ कम एक पल्यके भीतर अतीत अनागत द्रव्यको जानते है । यह भी गुरुका उपदेश ही है, इस विषयका कथन करनेवाला वर्तमान कालमें कोई सूत्र अती ' अणुत्तरविमाणवासियदेवा सव्वट्टसिद्धि सव्वट्टसिद्धिय विमाणवासियदेवा सिहरादो', काप्रती अणुत्तरविमाणवासियदेवा सव्वट्टसिद्धिविमाणसिहरादो ' ताप्रती अणुत्तरविमाणवासियदेवा सिहरादो' इति पाठः । " " Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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