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________________ १३८) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड (५, ४, ३१. एगसमओ । उक्कस्सेण तिसमऊणसगदालोसपुवकोडीहि सादिरेयाणि तिणि पलिदोवमाणि आधाकम्मस्स उक्कस्संतरं होदि । किरियाकम्मस्स वि एवं चेव । वरि तीहि अंतोमुत्तेहि अदुवस्सेहि य* ऊणसगदालोसपुव्वकोडीहि सादिरेयाणि तिण्णि पलिदोवमाणि । इरियावथकम्मस्संतरं केवचिरं कालादो होदि? णाणाजीवं पडुच्च पत्थि अंतरं णिरंतरं । एगजीवं पड़च्च जहण्णण अंतोमुहुत्तं । उक्कस्सेण पुवकोडिपुधत्तं । कुदो ? एक्को देवो वा गैरइओ वा चउवीससंतकम्मियसम्माइट्ठी पुव्वकोडाउएसु मणुस्सेसु उववण्णो । तदो अट्ठवस्साणमुवरि विसोहिं पूरेदूण संजमं पडि. वण्णो । तदो दसणमोहणीयमुवसामेदूण पमत्तो जादो । पुणो पमत्तापमत्तपरावत्तसहस्सं कादूण अपुव्वउवसामगो अणियट्टिउवसामगो सुहुमउवसामगो होदूण उवसंतकसायवीयरायछदुमत्थो जादो । इरियावहकम्मस्स आदी दिदा । पुणो सुहुमो अणियट्टी अपुवो होदूण अंतरिय इत्थि-पुरिस-णवंसयवेदेसु अट्ठपुवकोडीओ जीविदूण पुणो अपज्जत्तएसु अट्ट अंतोमुहुत्ताणि ममिय पुणो इत्थि-पुरिस-णवंसयवेवेसु अट्टपुव्वकोडीओ जीविदूण सवजहण्णंतोमहत्तावसेसे जीविदव्वए ति अपुव्व उवसामगो अणियट्टि उवसामगो सुहमउवसामगो होदूण उवसंतकसाओ जादो । तस्स पढमसमए लद्धमंतरं । बिदियसमए मदो देवो जादो । एवं समयाहियसत्तअंतोमुत्तब्भहियअट्ठरस्सेहि ऊणाओ अडदालीस--- अधिक तीन पल्यप्रमाण है । यह अध:कर्मका उत्कृष्ट अन्तरकाल है। क्रियाकर्मका अन्तरकाल भी इसी प्रकार है। इतनी विशेषता है कि इसका उत्कृष्ट अन्तरकाल तीन अन्तर्मुहुर्त और आठ वर्ष कम सेंतालीस पूर्वकोटि अधिक तीन पल्यप्रमाण है । ईर्यापथकर्मका अन्तरकाल कितना है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है, वह निरन्तर है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल अन्तर्महर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल पर्वकोटिपथक्त्वप्रमाण है क्योंकि चौबीस कर्मकी सत्तावाला एक देव या नारकी सम्यग्दष्टि जीव पूर्वकोटिकी आयुवाले मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ। फिर आठ वर्षके बाद विशुद्धिको प्राप्त होकर संयमको प्राप्त हुआ। फिर दर्शनमोहनीयका उपशम करके प्रमत्त संयत हुआ । फिर प्रमत्त और अप्रमत्त गुणस्थानमें हजारों परिवर्तन करके अपूर्व उपशामक, अनिवृत्तिउपशामक और सूक्ष्म उपशामक होकर उपशान्तकषाय वीतराग छद्मस्थ हुआ । इस प्रकार ईर्यापथकर्मका प्रारम्भ दिखाई दिया । फिर सूक्ष्मसाम्पराय, अनिवृत्तिबादरसाम्प राय और अपूर्व करण होकर तथा ईर्यापथकर्मका अन्तर करके स्रीवेदी, पुरुषवेदी और नसकवेदियोंमें आठ आठ पूर्वकोटि काल तक जीवित रहकर फिर अपर्याप्तकोमें आठ अन्तर्मुहुर्त विताकर स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी और नपुंसकवेदियोंमें आठ आठ पूर्वकोटि काल तक जीवित रहकर जब जीवितमें सबसे जघन्य अन्तर्मुहूर्त काल शेष रहा तब अपूर्व उपशामक, अनिवृत्तिउपशामक और सूक्ष्म उपशामक होकर उपशान्तकषाय हो गया । तो उसके प्रथम समयमें ईर्यापथकर्मका उत्कृष्ट अन्तर प्राप्त हो जाता है । फिर दूसरे समयमें मरा और देव हो गया। इस प्रकार समयाधिक ताप्रती 'य' इत्येतत्पद नास्ति 1 अ-आ-काप्रतिष पयत्तो ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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