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________________ ५, ५,३४. ) अणुओगद्दारे धारणावरणीयपरूवणा ( २३३ कुदो ? छविवहअवायपच्चयसमुपज्जमाणतादो । धारणापच्चओ कि ववसायसरूवो कि णिच्छयसरूवोत्ति ? पढमपक्खे धारणेहापच्चयाणमेयत्तं, भेदाभावादो । बिदिए* धारणावायपच्चयाणमेयत्तं, णिच्छयभावेण दोण्णं भेदाभावादो त्ति ? ण एस दोसो, अवेदवत्थु लिंगग्गणदुवारेण कालंतरे अविस्सरण हेदुसंसकारजणणं विष्णाणं धारणेत्ति अवगमादो | ण चेदं गहिदग्गाहि त्ति अप्पमाणं, अविस्सरणहेदुलि गग्गा हिस्स गहिदगहणत्ताभावादो । छष्णं धारणाणं णामणिद्दं सपरूवणट्ठमुत्तरसुत्तं भणदि चक्खि दियधारणावरणीयं सोदिदियधारणावरणीयं घाणिवियधारणावरणीयं जिभिदियधारणावरणीयं फासिंदियधारणावरणीयं णोईदियधारणावरणीयं । तं सव्यं धारणावरणीयं णाम कम्मं ॥ ३४ ॥ एस सुत्तस्स अत्थो सुगमो । एत्थ ओग्गह ईहावाय धारणाभेदेण चव्विहमाभिनिबोहियणाणं । तस्स आवरणं पि चउव्विहमेव, आवरणिज्जभेदेण आवरणस्स वि भेदुववत्तदो ४ । एक्कस्स इंदियस्स जदि अवग्गहादिचत्तारिणाणाणि लब्भंति तो क्योंकि, यह छह प्रकारके अवायके निमित्तसे उत्पन्न होता है । शंका धारणाज्ञान क्या व्यवसायस्वरूप है या क्या निश्चयस्वरूप है ? प्रथम पक्षके स्वीकार करनेपर धारणा और ईहाज्ञान एक हो जाते हैं, क्योंकि, उनमें कोई भेद नहीं दूसरे पक्ष के स्वीकार करनेपर धारणा और अवाय ये दोनों ज्ञान एक हो जाते हैं, निश्चय भावकी अपेक्षा दोनों ज्ञानों में कोई भेद नहीं है । - समाधान - • यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि अवायके द्वारा गृहीत वस्तुके लिंगको ग्रहण करके उसके द्वारा कालान्तर में अविस्मरणके कारणभूत संस्कारको उत्पन्न करनेवाला विज्ञान धारणा है, ऐसा स्वीकार किया है। यह गृहीतग्राही होनेसे अप्रमाण हैं, ऐसा नही माना जा सकता है; क्योंकि, अविस्मरण के हेतुभूत लिंगको ग्रहण करनेवाला होनेसे यह गृहीतग्राही नहीं हो सकता । अब छहों प्रकारकी धारणा के नामनिर्देशका कथन करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं रहता । क्योंकि चक्षुइन्द्रियधारणावरणीय कर्म, श्रोत्रइन्द्रियधारणावरणीय कर्म, घ्राणइन्द्रियधारणावरणीय कर्म, जिह वाइन्द्रियधारणावरणीय कर्म, स्पर्शनइन्द्रियधारणावरणीय कर्म और नोइन्द्रियधारणावरणीय कर्म; यह सब धारणावरणीय कर्म है ॥ ३४ ॥ इस सूत्र का अर्थ सुगम है। यहां अवग्रह, ईहा अवाय और धारणाके भेदसे आभिनिबोधिक ज्ञान चार प्रकारका है, इसलिये उसका आवरण भी चार प्रकारका ही है; क्योंकि, आवरणीय के भेदसे आवरण के भी भेद ( ४ ) बन जाते हैं। एक इन्द्रियके यदि अवग्रह आदि चार ज्ञान प्राप्त Jain Education International अ-आ-काप्रतिषु विदिय, ताप्रती ' विदिय ( ये ) ' इति पाठ: 1 8 आ-का-ताप्रतिषु 'अब्भुव - गमादोत्ति' इति पाठः । से किं तं धारणा ? धारणा छव्विहा पण्णत्ता 1 तं जहा- सोइंदियधारणा चक्खिदिअधारणा घाणिदिअधारणा जिब्भिदिअधारणा फासिंविअधारणा नोइदिअधारणा 1 नं.सू. ३४. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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