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________________ २३४) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड (५, ५,. ३५ मिदियाणं कि लभामो ति पमाणेण फलगणिदिच्छाए ओवट्टिदाए चउवीसआभिणिबोहियणाणाणि लब्भंति । तेसिमावरणाणि वि तत्तियाणि चेव २४ । एत्थ जिब्भाफास-घाण-सोदिदियाणं वंजणोगहेसु पक्खित्तेसु अट्ठावीसआभिणिबोहियणाणवियप्पा तत्तिया चेव आवरणवियप्पा च लब्मति २८ । एत्थ चदुमूलभंगेसु पक्खित्तेसु बत्तीसआभिणिबोहियणाणवियप्पा तेत्तिया चेव आवरणवियप्पा च लभंति । ण मूलभंगाणं पुणरत्तत्तमस्थि, विसेसादो सामण्णस्स कथंचि प्रधभदस्स उवलंभादो । तं जहा-सामणमेयसंखं विसेसो अणेयसंखो, वदिरेयलक्खणो विसेसो अण्णयलक्खणं सामण्णं, आहारो विसेसो आहेयो सामण्णं, णिच्चं सामण्णं अणिच्चो विसे तो। तम्हा सामण्ण-विसेसाणं णत्थि एयत्तमिदि ३२ । एवमाभिणिबोहियणाणावरणीयस्स कम्मस्स चउन्विहं वा चवीसविविधं वा अटठावीसविविधं वा बत्तीसविविध वा अडवालीसविधं वा चोद्दाल-सदविधं वा अठ्ठसठि-सवविधं वा बाणउदि-सदविधं वा बेसद-अट्ठासीदिविधं वा तिसद-छत्तीसविविधं वा तिसव-चुलसीदिविधं वा णादव्वाणि भवंति ॥ ३५ ॥ एदस्स सुत्तस्स अत्थे परूविज्जमाणे ताव इमा अण्णा पावणा कायव्या, एदीए विणा एदस्स सुत्तस्स अत्थावगमणुववत्तीदो । “बहु बहुविध-क्षिप्रानिःसृतानुक्त ध्रुवाणां सेतराणाम् + " होते हैं तो छह इन्द्रियोंके कितने ज्ञान प्राप्त होंगे, इस प्रकार त्रैराशिक प्रक्रिया द्वारा फलराशिसे गुणित इच्छाराशिको प्रमाणराशिसे भाजित करनेपर चौबीस आभिनिबोधिक ज्ञान उपलब्ध होते हैं और उनके आवरण भी उतने (२४) ही प्राप्त होते हैं। इन चौबीस भेदोंमें जिह वा, स्पर्शन, घ्राण और श्रोत्र इन्द्रिय सम्बन्धी चार व्यंजनावग्रहोंके मिलानेपर अट्ठाईस आभिनिबोधिक ज्ञानके भेद और उतने (२८) ही उनके आवरणोंके भेद भी प्राप्त होते हैं । इनमें चार मूल भंगोंके मिलानेपर बत्तीस आभिनिबोधिक ज्ञानके भेद और उतने ही उनके आवरणोंके भद भी प्राप्त होते हैं। इस तरह मल भंगोंके मिलानेपर पुनरुक्त दोष भी नहीं आता, क्योंकि विशेषसे सामान्यमें कथंचित् भेद पाया जाता है। यथा-सामान्य एक संख्यावाला होता है और विशेष अनेक संख्यावाला होता है, विशेष व्यतिरेक लक्षणवाला होता है और सामान्य अन्वय लक्षणवाला होता है, विशेष आधार होता है और सामान्य आधेय होता है सामान्य नित्य होता है और विशेष अनित्य होता है । इसलिये सामान्य और विशेष एक नहीं हो सकते इस प्रकार आभिनिबोधिकज्ञानावरणीय कर्मके चार भेद, चौबीस भेद, अट्ठाईस भेद, बत्तीस भेद, अडतालीस भेद, एक सौ चवालीस भेद, एक सौ अडसठ भेद, एकसौ बानबै भेद, दो सौ अठासी भेद, तीन सौ छत्तीस भेद और तीन सौ चौरासी भेद ज्ञातव्य हैं। ३५। इस सूत्रके अर्थका कथन करते समय यह अन्य प्ररूपणा करनी चाहिये, क्योंकि, इसके विना इस सूत्रके अर्थका ज्ञान नहीं हो सकता है । ' बहु, बहुविध, क्षिप्र, अनिःसृत, अनुक्त त. सू. १-१६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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