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________________ ५, ५,३५. ) पर्याडअणुओगद्दारे आभिणि बोहियणाणपरूवणा ( २३५ संख्या-वैपुल्यवाचिनो बहुशब्दस्य ग्रहणमविशेषात् । बहुशब्दो हि संख्यावाची वैपुल्यवाची च, तस्योभयस्यापि ग्रहणम् । कस्मात्? अविशेषात् । संख्यायामेकः द्वौ बहवः इति वैपुल्ये बहुरोदनो बहुः सूप इति ।बह वग्रहाद्यभावः प्रत्यर्थवशवर्तित्वादिति चेत्। न, सर्वदेकप्रत्ययोत्पत्तिप्रसंगात् । अस्तु चेत्-न, नगर-वन स्कंधावारेष्त्रप्येकप्रत्ययोत्प. तिप्रसंगात् । नगरवन-स्कन्धावाराणां नगरं वनं स्कन्धावर इति एकवचन निर्देशान्यथानुपपत्तितो न बहुत्वमिति चेत्-न, बहुत्वेन विना तत्प्रत्ययत्रितयोत्पत्तिविरोधात्। न च एकवचननिर्देशः एकवलिंगम्, वनगतेषु धवादिष्वेकत्वानुपलम्भात्। न सादृश्यमेकत्वस्य कारणम् , तत्र तद्विरोधात् । किं च- यस्यैकार्थमेव विज्ञानं तस्य पूर्वविज्ञाननिवृत्तावृत्तरविज्ञानोत्पत्तिर्भवेत् अनिवतौ वा? अनिवृतौ नोत्तरविज्ञानोत्पत्तिः, ' एकार्थमेकमनस्त्वात् ' इत्यनेन विरोधात्* । तथा च इदमस्मादन्यदित्यस्य और ध्रुव तथा इनके प्रतिपक्षभूत पदार्थोंका आभिनिबोधिक ज्ञान होता है" इस सूत्रमें बहु शब्दको संख्यावाची और वैपुल्यवाची ग्रहण किया है, क्योंकि, दोनों प्रकारका अर्थ करने में कोई विशेषता नहीं है । बहु शब्द संख्यावाची है और वैपुल्यवाची भी हैं । उन दोनोंका ही यहां ग्रहण है, क्योंकि, इन दोनों ही अर्थों में समान रूपसे उसका प्रयोग होता है। संख्यामें यथा- एक, दो, बहुत । वैपुल्यमें यथा- बहुत भात बहुत दाल ।। ___ शका -बहु अवग्रह आदि ज्ञानोंका अभाव है, क्योंकि, ज्ञान एक एक पदार्थके प्रति अलग अलग होता है। ___समाधान - नहीं, क्योंकि ऐसा माननेपर सर्वदा एक पदार्थके ज्ञानकी उत्पत्तिका प्रसंग आता है। शंका - ऐसा रहा आवे ? ___ समाधान - नहीं, क्योंकि, ऐसा माननेपर नगर, वन और छावनीमें भी एक पदार्थके ज्ञानकी उत्पत्तिका प्रसंग आ जायगा । शंका - नगर, वन और स्कन्धावारमें चंकि एक नगर, एक वन और एक छावनी इस प्रकार एकवचनका प्रयोग अन्यथा बन नहीं सकता, इससे विदित होता है कि ये बहुत नहीं हैं ? समाधान- नहीं, क्योंकि, बहुत्वके विना उन तीन प्रत्ययोंकी उत्पत्ति में विरोध आता है। दूसरे, एक वचनका निर्देश एकत्वका साधक है ऐसी भी कोई बात नहीं है। क्योंकि, वनमें अवस्थित धवादिकोंमें एकत्व नहीं देखा जाता । सादृश्य एकत्वका कारण है, यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि, वहां उसका विरोध है। दूसरे, जिसके मतमें विज्ञान एक अर्थको ही ग्रहण करता है उसके मतमें पूर्व विज्ञानकी निवृत्ति होनेपर उत्तर विज्ञानकी उत्पत्ति होती है या पूर्व विज्ञानकी निवृत्ति हुए विना ही उत्तर विज्ञानकी उत्पत्ति होती है ? पूर्व विज्ञानकी निवृत्ति हुए विना तो उत्तर विज्ञानको उत्पत्ति हो नहीं सकती, क्योंकि “ विज्ञान एक मन होनेसे एक अर्थको जानता है" इस वचनके साथ विरोध Oस. सि. १-१६. *त रा. १, १६, १. *त. रा. १, १६, २. * त. रा. १, १६, ३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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