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________________ २३६ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड व्यवहारस्योच्छित्तिर्भवेत् । कि च- यस्यैकं विज्ञान नानेकार्थविषयं तस्य मध्यमा-प्रदेशिन्योर्युगपदुपलम्भाभावात्तद्विषयदीर्घ हस्वव्यवहारः आपेक्षिको विनिवर्तेत । कि चैकार्थविषय तिनि विज्ञाने स्थाणौ पुरुषे वा तदिति उभयसंस्पशित्वाभावात्तन्निबन्धनः संशयो वितिवर्तेत। कि च- पूर्णकलशमालिखतश्चित्रकर्मणि निष्णातस्य चैत्रस्य क्रियाकलशविषयविज्ञानाभावात्तदनिष्पत्तिर्जायत । नासौ योगपद्येन द्वि - ज्यादिविज्ञानाभावे उत्पद्यते, विरोधात् । किं च-योगपद्येन बह ववग्रहाभावात् योग्यदेशस्थितमंगुलिपंचकं न प्रतिभासेत् । न परिच्छिद्यमानार्थभेदाद्विज्ञानभेदः, नानास्वभावस्यैकस्यैव त्रिकोटिपरिणन्तुविज्ञानस्योपलम्भात् । न शक्तिभेदो वस्तुभेदस्य कारणम्, पृथक्-पृथगर्थक्रियाकर्तृत्वाभावातेषां वस्तुत्वानुपपत्तेः । एकार्थविषयः प्रत्यय एकः । ऊर्ध्वाधो मध्यभागाद्यवयवगतानेकत्वानुगतैकत्वोपलम्भानकः प्रत्ययोऽस्तीति चेत्-न, एवंविधस्यैव जात्यन्तरीभूतस्यात्रैकत्वस्य ग्रहणात् । आता है । और ऐसा होनेपर यह इससे भिन्न है ' इस प्रकारके व्यवहारका लोप होता है । तीसरे, जिसके मतमें एक विज्ञान अनेक पदार्थोंको विषय नहीं करता है उसके मतमें मध्यमा और प्रदेशिनी अंगुलियोंका एक साथ ग्रहण नहीं होनेके कारण तद्विषयक दोघं और हृस्वका आपेक्षिक व्यवहार नहीं बनेगा। चौथे, प्रत्येक विज्ञान के एक एक अर्थ के प्रति नियत माननेपर स्थाणु और पुरुषमें 'वह' इस प्रकार उभयसंस्पर्शी ज्ञान न हो सकनेके कारण तन्निमित्तिक संशय ज्ञानका अभाव होता है। पांचवें पूर्ण कलशको चित्रित करनेवाले और चित्रकर्ममें निष्णात चैत्रके क्रिया व कलश विषयक विज्ञान नहीं हो सकनेके कारण उसकी निष्पत्ति नहीं हो सकती है। कारण कि एक साथ दो तीन ज्ञानों के अभावमें उसकी उत्पत्ति सम्भव नही है, क्योंकि ऐसा मानने में विरोध आता है। छठे, एक साथ बहुतका ज्ञान नहीं हो सकनेके कारण योग्य देशमें स्थित अंगुलिपचकका ज्ञान नहीं हो सकता। जाने गये अर्थमें भेद होनेसे विज्ञानमें भी भेद है, यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि नाना स्वभाववाला एक ही त्रिकोटिपरिणत विज्ञान उपलब्ध होता है । शक्तिभेद वस्तुभेदका कारण है, यह कहना भी ठीक नहीं है; क्योंकि अलग अलग अर्थक्रियाकारी न होनेसे उन्हें वस्तुभूत नहीं माना जा सकता | एक अर्थको विषय करनेवाला विज्ञान एक प्रत्यय है । शंका - चूंकि ऊर्श्वभाग, अधोभाग और मध्यभाग आदि रूप अवयवोंमें रहनेवाली अनेकतासे अनुगत एकता पायी जाती है, अतएव वह एक प्रत्यय नहीं है ? समाधान – नहीं, क्योंकि, यहां इस प्रकारकी ही जात्यन्तरभूत एकताता ग्रहण किया है। ॐ त रा. १, १६, ४. ४ आप्रती 'किं च अर्थविषय-' काप्रती ' किंचार्थविषय-' ताप्रती किं च अर्थ ( एकार्थ-) विषय ' इति पाठः 1 त . रा. १, १६, ५. *त. रा. १,१६, ६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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