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________________ ( २१३ ५, ५, २१. ) पडिअणुओगद्दारे कम्मदव्वपयडिपरू वणा मणपज्जयणाणं पच्छा किनिदि वुच्चदे? सच्चं अप्पमेवेदं मणपज्जयणाणमोहिणाणादो। किंतु संजमणिबंधणं चेव जेण मणपज्जयणाणं तेण कारणदुवारेण ओहिणणादो मण. पज्जयणाणं महल्लमिदि जाणावणठें पच्छा णिहिस्सदे। एक्स्स गाणस्स कम्मं तं मणपज्जयणाणावरणीयं । अप्पटुसणिहाणमेत्तेणुप्पज्जमाणं तिकालगोयरासेसदव्व-पज्जयविसयं करणक्कम व्ववहाणादीदं सयलपमेएण अलद्धत्थाहं पच्चक्खं विणासविवज्जियं केवलणाणं णाम । एक्स्स आवारयं जं कम्मं तं केवलणाणावरणीयं णाम । जीवो कि पंचणाणसहावो आहो केवलणाणसहाओ ति ? ण ताव पंचणाणसहावो सहावट्ठाणलक्खण विरोहा पडिगहियाणं एक्कम्मि जीवदव्वे पंचण्णं जाणाणमक्कमेणल उत्तविरोहादो। ण च केवलणाणसहावो, आवरणिज्जाभावेण सेसावरणाणमभावप्पसंगादो त्ति ? एत्थ परिहारो वच्चदे- जीवो केवलणाण-- समाझान- यह कहना सही है कि अवधिज्ञानकी अपेक्षा मनःपर्ययज्ञान नियमसे अल्प है, किन्तु यह मन:पर्ययज्ञान यत: संयमके निमित्तसे ही उत्पन्न होता है इसलिये कारण द्वारा अवधिज्ञानकी अपेक्षा मनःपर्ययज्ञान महान है, यह बतलाने के लिये इसका अवधिज्ञानके बाद निर्देश किया है। इस ज्ञानका जो आवरण कर्म है वह मनःपर्ययज्ञानावरणीय है । विशेषार्थ- इस कथनसे मनःपर्ययज्ञान के विषयपर स्पष्ट प्रकाश पडता है। मनःपर्यय ज्ञान अवधिज्ञानके समान सीधे तौरसे पदार्थोंको नहीं जानता, किन्तु वह मनकी पर्यायों द्वारा ही रूपी पदार्थों को जानता है । यह ठीक है कि जो पदार्थ मनके विषय हो गये हैं उन्हे तो वह अपनी मर्यादाके अनुसार जानता ही है । किन्तु जो अभी विषय नहीं हुए हैं या जो अर्धचिन्तित हैं वे आगे चलकर चूंकि मनके विषय होंगे, इसलिये उन्हें भी यह ज्ञान जानता है । मनःपर्ययका लक्षण कहते समय मनकी पर्यायों अर्थात् विशेषोंको मनःपर्ययज्ञान जानता है, ऐसा लक्षण कहा है। इसलिये यह शंका उठाई गई है कि ज्ञान केवल विशेषोकों नहीं जानता, किन्तु सामान्य विशेषात्मक पदार्थों को ही जानता है । फिर यहां मनःपर्ययज्ञान मनके विशेषोंको जानता है। ऐसा क्यों कहा । इसका समाधान मूलमें किया ही है। जो आत्मा और अर्थक संनिधान मात्रसे उत्पन्न होता है, जो त्रिकाल गोचर समस्त द्रव्य और पर्यायोंको विषय करता है; जो करण, क्रम और व्यवधानसे रहित हैं; सकल प्रमेयोंके द्वारा जिसकी थाह नहीं पाई जा सकगी, जो प्रत्यक्ष है और विनाशरहित है वह केवलज्ञान है । इसका आवारक जो कर्म हैं वह केवलज्ञानावरणीय कर्म है । शंका- जीव क्या पांच ज्ञान स्वभाववाला है या केवलज्ञान स्वभाववाला है? पांच ज्ञान स्वभाववाला तो हो नहीं सकता, क्योंकि ऐसा माननेपर सहावस्थान लक्षण विरोध होनेसे एक जीव द्रव्यमें स्वीकार किये पांच ज्ञानोंका युगपत् अस्तित्व मानने में विरोध आता है । वह केवलज्ञान स्वभाववाला भी नहीं हो सकता, क्योंकि, ऐसा माननेपर शेष आवरणीय ज्ञानोंका अभाव हो जानेसे उनको आवरण करनेवाले शेष आवरण कर्मोंका अभाव प्राप्त होता हैं ? काप्रती - मकम्मेण -' इति पाठ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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