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________________ २१२ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड ( ५, ५, २१ तदविशेषात् । ततः पराणीन्द्रियाणि आलोकादिश्च, परेषामायत्तं ज्ञानं परोक्षम् । तदन्यत् प्रत्यक्षमित्यंगीकर्तव्यम् । एदस्स ओहिणाणस्स वियप्पा जहा वेयणाए* परूविदा तहा परूवेयव्वा । एदमावारेदि त्ति ओहिणाणावरणीयं ।। परकीयमनोगतोऽर्थो मनः, मनसः पर्ययाः विशेषाः मनःपर्ययाः, तान् जानातीति मनःपर्ययज्ञानम्।सामान्यव्यतिरिक्तविशेषग्रहणं न सम्भवति, निविषयत्वात् । तस्मात् सामान्य विशेषात्मकवस्तुग्राहि मनःपर्ययज्ञानमिति वक्तव्यं चेत्-नैष दोषः, इगत्वात् । तहि सामान्यग्रहणमपि कर्तव्यम्? न, सामर्थ्यलभ्यत्वात् । एदं वयणं देसामासियं । कुवो? अचितियाणमद्धचितियाणं च अत्थाणमवगमादो । अधवा मणपज्जवसण्णा जेण रूढिभवा तेण चितिए वि अचितिए वि अत्थे वट्टमाणणाणबिसया त्ति घेतवा। ओहिणाणं व एवं पि पच्चक्खं, अणिदियजत्तादो । महाविसयादो ओहिणाणादो अप्पविसयं शंका - अवग्रहमें वस्तुका एकदेश विशद होता है ? समाधान - नहीं, क्योंकि, अवधिज्ञान में भी उक्त विशदतासे कोई विशेषता नहीं है। अर्थात् इसमें भी वस्तुको एकदेश विशदता पाई जाती है। इसलिये परका अर्थ इन्द्रिया और आलोक आदि है, और पर अर्थात् इनके आधीन जो ज्ञान होता है वह परोक्ष ज्ञान है । तथा इससे अन्य ज्ञान प्रत्यक्ष है, एसा यहां स्वीकार करना चाहिये। इस अवधिज्ञानके भेद जिस प्रकार वेदनामें ( पु. ९ पृ. १२-५३ ) कहे हैं उसी प्रकार यहां कहने चाहिये। इस अवधिज्ञानको जो आवरण करता है वह अवधिज्ञानावरणोय कर्म है । परकीय मनको प्राप्त हुए अर्थका नाम मन है और मनकी पर्यायों अर्थात् विशेषोंका नाम मनःपर्याय है। उन्हें जो जानता है वह मनःपर्ययज्ञान हैं । शंका - सामान्यको छोडकर केवल विशेषका ग्रहण करना सम्भव नहीं है, क्योंकि, ज्ञानका विषय केवल विशेष नहीं होता, इसलिये सामान्य-विशेषात्मक वस्तुको ग्रहण करनेवाला मनःपर्ययज्ञान है, ऐसा कहना चाहिये ? समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि वह बात हमें इष्ट है। शंका - तो मनःपर्ययज्ञानके विषयरूपसे सामान्यका भी ग्रहण करना चाहिये ? समाधान - नहीं, क्योंकि, सामर्थ्य से उसका ग्रहण हो जाता है । यह वचन देशामर्शक है, क्योंकि इससे अचिन्तित और अर्धचिन्तित अर्थोका भी ज्ञान होता है । अथवा मन:पर्याय यह संज्ञा रूढिजन्य है. इसलिये चिन्तित और अचिन्तित दोनों प्रकारके अर्थमें विद्यमान ज्ञानको विषय करनेवाली यह संज्ञा है, ऐसा यहां ग्रहण करना चाहिये । अवधिज्ञानके समान यह ज्ञान भी प्रत्यक्ष है, क्योंकि यह इन्द्रियोंसे नहीं उत्पन्न होता। शंका - महाविषयकाले अवधिज्ञानसे अल्पविषयवाला मनःपर्ययज्ञान उसके बाद क्यों कहा? * षट्वं. पु. ९, पृ. १२-५३. . ताप्रतावतोऽग्रे ( मन पर्यायाः, विशेषा ) इत्यादिक पाठोऽस्ति कोष्ठकान्तर्गत:1 . अ-आ-काप्रतिषु ' इष्टत्वात्तत्तहि', ताप्रती 'इष्टत्वात् । ततहि ' इति पाठः [ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org,
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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