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________________ ३७२) छक्खंडागमे वग्गणा-खंडं (५, ५, ११६. णिरयगईए पाओग्गाणपुव्वी णिरयगइपाओग्गागुपुव्वी तिस्से जं कारणं कम्मं तस्स वि एसा चेव सण्णा, कारणे कज्जुवयारादो । संठागणामकम्मादो जेण सरीरसंठाणणिफत्ती तेग णिप्फला णिरयगइपाओग्गाणपुव्वी त्ति ण वोत्तं जत्तं, अगहिदओरालिय-वे. उन्विय-सरीरस्स जीवस्स संठाणाणमुदयाभावादो कम्मइयसरीरमसंठाणंमाहोहदि त्ति जीवपदेसाणं अण्णण्णाए अणुपरिवाडीए अवदाणस्स कारणमाणपुग्वि ति णिच्छिदव्वं । उस्सेहधणंगुलस्स संखेज्जदिभागमेत्तसव्वजहण्णोगाहणाए णिरयदि गच्छमाणसित्थमच्छस्स विसिटमुहागारेण ट्ठियस्स एगो गिरयगइपाओग्गाणपुग्विवियप्पो लब्भइ। पुणो तीए चेव जहण्णोगाहणाए णिरयदि गच्छमाणस्स अवरस्स सिस्थमच्छस्स बिदियो णिर यगइपाओग्गाणुपुस्विवियप्पो लम्भइ, पुग्विल्लजीवपदेसाणमणुपरिवाडीए अवट्ठाणादो पुग्विल्लागासपदेसादो पुधभूदआगासपदेससंबंधेण एत्थ अण्णारिसअणुपरिवाडीए अवठाणदंसणादो । संपहि ताए चेव सव्वजहण्णोगाहणाए णिरयगई गच्छमाणस्स अवरस्स सिस्थमच्छस्स तदियो णिरयगइपाओग्गाणुपुस्विवियप्पो लब्भदि, पुग्विल्लअणुपरिवाडिअवट्ठाणादो पुविल्लागासपदेसादो पुधभदआगासपदेससंबंधण एत्थ वि अण्णारिसअणुपरिवाडीए अवट्ठाणस्स उवलंभादो । एदं कारणं सव्वत्थ वत्तव्वं । पुणो सवजहण्णोगाहणाए अलद्धपुव्वमुहागारेण नरकगतिके योग्य जो आनुपूर्वी होती है वह नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी है, और इसका कारण जो कम है उसकी भी यही संज्ञा है, क्योंकि, यहां कारण में कार्यका उपचार किया गया है। शंका- यतः संस्थान नामकर्मके उदयसे शरीरसंस्थानकी उत्पत्ति होती है अतएव नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी प्रकृतिका मानना निष्फल है ? ___समाधान- ऐसा कहना योग्य नहीं है, क्योंकि, जिसने औदारिक और वैक्रियिकशरीरको ग्रहण नहीं किया है ऐसे जीवके चूंकि संस्थानोंका उदय रहता नहीं है अतएव उसका कार्मणशरीर संस्थानरहित न होवे, इसलिए जीवप्रदेशोंके भिन्न भिन्न परिपाटीक्रमानुसार अवस्थानका कारण आनुपूर्वी प्रकृति है, ऐसा यहां निश्चय करना चाहिए। __ उत्सेध धनांगुलके संख्यातवें भागमात्र सबसे जघन्य अवगाहनाके साथ नरकगतिको जानेवाले और विशिष्ट मुखाकाररूपसे स्थित सिक्थ मत्स्यके नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वीका एक विकल्प पाया जाता है । पुनः उसी जघन्य अवगाहनाके साथ नरकगतिको जानेवाले दूसरे सिक्थ मत्स्यके नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वीका दूसरा विकल्प पाया जाता है, क्योंकि, पहलेके जीवप्रदेशोंका अनुपरिपाटीसे जो अवस्थान पाया जाता है उससे यहांपर पहलेके आकाशप्रदेशोंसे पृथग्भूत आकाशप्रदेशोंके सम्बन्धसे भिन्न अनुपरिपाटीका अवस्थान देखा जाता हैं । अब उस ही सबसे जघन्य अवगाहनाके नरकगतिको जानेवाले अन्य सिक्थ मत्स्यके नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी नामकर्मका तीसरा विकल्प प्राप्त होता है, क्योंकि, पहलेकी अनुपरिपाटी रूपसे जो अवस्थान है इससे यहां पर भी पहलेके आकाशप्रदेशोंसे पृथग्भूत आकाशप्रदेशोंके सम्बन्धसे अन्य अनुपरिपाटीका अवस्थान उपलब्ध होता है । यह कारण सर्वत्र कहना चाहिए । पुनः सबसे जघन्य अवगाहनाके * अप्रतौ 'त्ति वोत्तुं' इति पाठः। *ताप्रती भावादो। कम्मइय-' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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