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________________ ५, ५, ११६. ) पयडिअणुओगद्दारे णामपयडिपरूवणा ( ३७३ णिरयगइं गच्छमाणस्स अवरस्स सित्थमच्छस्स चउत्थो णिरयगइपाओग्गाणपुन्वि-- वियप्पो लब्भदि, अलद्धपुवमुहागारेण परिणयत्तादो। पुणो अवरस्स सित्थमच्छस्स ताए चेव सवजहण्णोगाहणाए णिरयगइं गच्छमाणस्स पंचमो णिरयगइपाओग्गाणुपुविवियप्पो लगभइ, अलद्धपुस्वमहागारेण परिणमिददव्वस्स कारणत्तादो। एवं छ-सत्त. अटु-णव-दस-आवलिय-उस्सास-थोव-लवणालि-महत्त-दिवस-पक्ख-मास-उड्ड-अयणसंवच्छर-जुग-पुव्व-पल्ल सागररज्जुतिरियपदरे ति णिरयगइपाओग्गाणुपुन्विवियप्पा परूवेयव्वा । पुणो एदेणेव कमेण दो-तिण्णिआदितिरियपदरवियप्पा वड्ढावेदव्वा जाव सूचिअंगलस्स असंखेज्जदिमागमेत्ततिरियपदराणं जत्तिया आगासपदेसा तत्तिया णिरयगइपाओग्गाणुपुग्विवियप्पा लभंति । णवरि णव-णवमुहवियप्पेहि णिरएसु उप्पज्जमाणसित्थमच्छाणं सा सव्वजहण्णोगाहणा धुवा कायव्वा । रज्जुपदरं रज्जवग्गो तिरियपदरं त्ति एयट्ठो। सूचिअंगलस्स असंखेज्जदिभागेण तिरियपदरे गणिवे जत्तिया आगासपदेसा तत्तिया चेव णिरयगइपाओग्गाणपुग्विवियप्पा सित्थमच्छसव्वजहण्णोगाहणमस्सिदूण लद्धा त्ति भणिदं होदि । एत्तो अहियाण लभंति। कुदो ? साभावियादो। __ संपहि पदेसुत्तरसव्वजहण्णोगाहणाए णिरएसु मारणंतिएण तेण विणा वा विग्गहगदीए उप्पज्जमाणसिस्थमच्छाणं तत्तिया चेव णिरयगइपाओग्गाणुपुस्विवियप्पा लब्भंति । साथ अलब्धपूर्व मुखाकाररूपसे नरकगतिको जानेवाले अन्य सिक्थ मत्स्यके नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वीका चौथा विकल्प होता है, क्योंकि, पहले नहीं उपलब्ध हुए ऐसे मुखाकाररूपसे वह परिणत हुआ है । पुनः उसी सर्वजघन्य अवगाहनाके साथ नरकगतिको जानेवाले अन्य सिक्थ मत्स्यके नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वीका पांचवां विकल्प उपलब्ध होता है, क्योंकि, यह अलब्धपूर्व मुखाकाररूपसे परिणमित हुए द्रव्यका कारण है । इस प्रकार छह, सात, आठ, नौ, दस, आवलि, उच्छ्वास, स्तोक, लव, घटिका, मुहूर्त, दिवस, पक्ष, मास, ऋतु, अयन, वर्ष युग, पूर्व, पल्य, सागर और राजु रूप तिर्यक्प्रतर तक नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वीके विकल्प कहने चाहिए । पुनः इसी क्रमसे दो तीन आदि तिर्यप्रतरविकल्पोंको सूच्यंगुलके असंख्यातवें भाग मात्र तिर्यकप्रतरोंके जितने आकाशप्रदेश होते हैं उतने मात्र नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वीके विकल्प प्राप्त होने तक बढाते जाना चाहिए । इतनी विशेषता है कि नूतन नूतन मुखविकल्पोंके साथ नरकोंमें उत्पन्न होनेवाले सिक्थ मत्स्योंकी वह सबसे जघन्य अवगाहना ध्रुव करनी चाहिए । राजुप्रतर, राजुवर्ग और तिर्यकप्रतर ये एकार्थवाची शब्द हैं । सूच्यंगुलके असंख्यातवें भागसे तिर्यप्रतरको गणित करनेपर जितने आकाशप्रदेश उपलब्ध होते हैं उतने ही सिक्थ मत्स्यकी सबसे जघन्य अवगाहनाकी अपेक्षा नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वीके विकल्प प्राप्त होते हैं, यह उक्त कथनका तात्पर्य है । इनसे अधिक विकल्प नहीं प्राप्त होते हैं, क्योंकि, ऐसा स्वभाव है। अब एक प्रदेश अधिक सबसे जघन्य अवगाहनाके साथ नरकोंमें मरणांतिक समुद्घात करके या उसके विना विग्रहगति द्वारा उत्पन्न होनेवाले सिक्थ मत्स्योंके नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वीके ४ अप्रतौ ' अव 'का-ताप्रत्यौः ' ताव 'इति पाठः। * का-ताप्रत्यो ' संवच्छर पुव्व ' इति पाठः | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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