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________________ ३७४ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड अहियोगाहणाए अहिया मुहागारा ण लब्भंति, कारणसत्तिभेदेण कज्जभेदुप्पत्तीदो। ण च एक्कम्हि कारणे समाणसत्तिसंखोवलक्खिए संते कज्जसंखाविसयभेदो अत्यि, विरोहादो। जहण्णोगाहणमुहागारेहि पदेसुत्तरजहण्गोगाहणमुहागारा अण्णोण्णं कि सरिसा आहो विसरिसा ति ? जदि पढमादिया अणुपरिवाडीए पढमादिएहि सरिसा तो पदेसुत्तरजहण्णोगाहणाए लद्धगिरयगइपाओग्गाणपुग्विवियप्पा पुणरुत्ता होति । अह जदि ण सरिसा तो एदे मुहागारा णिरयगइपाओग्गाणपुवीए ण होति । अह होंति, जहण्णोगाहणाए अण्णेहि वि0 मुहागारेहि होदव्वमिदि ? एत्थ परिहारो वुच्चदे- ण ताव पढमपक्खे वुत्तदोसो संभवदि, अणभव गमादो । ण च असरिसपक्खे वुत्तदोसो वि संभवदि, अण्णाणुपुव्वीदो असरिसमुहागारु पत्तीए विरोहाभावादो। ण च जहण्णोगाहणाए एसा आणुपुवी सकज्जमुप्पावेदि, पदेसुत्तरओगाहणापडिबद्वाणुपुवीए सेसोगाहणासु वावारविरोहादो। ण च जहण्णोगाहणमुहागारेहि पदेसुत्तरजहण्णोगाहणमुहागाराणं सरिसत्तमत्थि, पुणरत्तप्पसंगादो। एसा आणुपुवी पुग्विल्लाणपुवीहितो पुधभूदे त्ति कधं णव्वदे ? भिण्णकज्जकर गादो। " उतने ही विकल्प प्राप्त होते हैं। अधिक अवगाहनाके अधिक मुखाकार नहीं प्राप्त होते, क्योंकि कारण रूप शक्तिमें भेद होनेसे ही कार्य में भेद उत्पन्न होता है। समान शक्तिसंख्यासे युक्त एक कारणके होनेपर कार्यमें संख्याविषयक भेद नहीं होता है. क्योंकि, ऐसा मानने में विरोध आता है। शंका-- जघन्य अवगाहनाके मुखाकारोंसे प्रदेशोत्तर जघन्य अवगाहनाके मुखाकार परस्परमें क्या समान होते हैं या असमान ? यदि प्रथमादि मुखाकार अनुपरिपाटीसे प्रथमादिकोंके साथ समान होते हैं तो एक प्रदेश अधिक जघन्य अवगाहनाके द्वारा प्राप्त हुए नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वीके विकल्प पुनरुक्त होते हैं। और यदि वे समान नहीं होते हैं तो ये मुखाकार नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वीके नहीं हो सकते। यदि उसीके होते हैं तो जघन्य अवगाहनासे भिन्न भी मुखाकार होने चाहिए ? समाधान-- यहां इस शंकाका समाधान कहते हैं, प्रथम पक्षमें कहा हुआ दोष तो सम्भव नहीं है, क्योंकि, उसे स्वीकार नहीं किया है । तथा असमान पक्षमें कहा हुआ दोष भी सम्भव नहीं है, क्योंकि, अन्य आनुपूर्वीसे असमान मुखाकारोंकी उत्पत्ति होने में कोई विरोध नहीं आता। जघन्य अवगाहनामें यह आनुपूर्वी अपने कार्यको उत्पन्न करती है, यह कहना ठीक नहीं है; क्योंकि, एक प्रदेश अधिक अवगाहनासे सम्बन्ध रखनेवाली आनुपूर्वीका शेष अवगाहनाओं में व्यापार मानने में विरोध आता है । जघन्य अवगाहनाके मुखाकारोंके साथ एक प्रदेशाधिक जघन्य अवगाहनाके मुखाकारोंकी समानता होती है, यह कहना भी ठीक नहीं है; क्योंकि, ऐसा मानने में पुनरुक्त दोष आता है । शंका-- यह आनुपूर्वी पहलेकी आनुपूर्वियोंसे भिन्न है, यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-- उसका कार्य भिन्न है, इसीसे उसकी उनसे भिन्नता जानी जाती है। और भिन्न ४ अ-आ-काप्रतिषु · संखोवसक्कीए '. ताप्रती · संखोवलक्की ( द्धी ) ए ' इति पाठः । 9 अ-आ-प्रतिष 'मि' इति पाठः तातो ' अणुब्भुव-' इति पाठः 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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