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________________ छक्खंडागमे वग्गणा - खंड ( ५, ४, ३१. जोगाणुवादेण ओरालियमिस्सकायजोगीसु पओअकम्प- समोदाणकन्त-आधाकम्माणमोघभंगो । इरियावथकम्म तवोकम्माणं खइयो भावो । किरियाकम्मस्स खइयो वा खओवसमियो वा भावो । वेउब्विय-वेउब्वियमिस्साणं सहस्सारभंगो । आहार - आहारमिस्सकायजोगीणं पओअकस्म तवोकम्माणं खओवसमियो भावो । समोदाणकम्म-आधाकम्माणं ओदइओ भावो । किरियाकम्मस्स खइओ वा खओवसमियो वा भावो । कम्मइयकायजोगीणमोघभंगो | णवरि इरियावथ तवोकम्माणं खइयो चेव भावो । १७४ ) वेदानुवादेण तिणिवेद- चत्तारिकसाय-सामाइय-छेदोवद्वावण सुद्धिसंजमाणमोघभंगो। णवरि इरियावथकम्मं णत्थि । अवगदवेदाणं पओअकम्म-समोदाणकम्म-आधाकम्माणमोघभंगो । इरियावथ तवोकम्माणं उवसमिओ वा खइयो वा भावो । योगमागंणाके अनुवादसे औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें प्रयोगकर्म, समवधानकर्म और अधः कर्मका विचार ओघके समान है। ईर्यापथकर्म और तपःकर्मका क्षायिक भाव है । क्रियाकर्मका क्षायिक और क्षायोपशमिक भाव है। वैक्रियिककाययोगी और वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवोंका विचार सहस्रारकल्प के समान है । आहारकाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंके प्रयोगकर्म और तपःकर्मका क्षायोपशमिक भाव है । समवधानकर्म और अधः कर्मका औदयिक भाव है । क्रियाकर्मका क्षायिक और क्षायोपशमिक भाव है । कार्मणकाययोगी जीवोंका विचार ओघके समान है । इतनी विशेषता हैं कि इनके ईर्यापथकर्म और तपःकर्मका एक मात्र क्षायिक भाव है। विशेषार्थ - औदारिकमिश्रकाययोग में ईर्यापथकर्म और तपःकर्म केवलिसमुद्धातकी अपेक्षा घटित होता है, इसलिये इस योग में इन दोनों कर्मोंका क्षायिक भाव कहा है । क्रियाकर्म चतुर्थ गुणस्थान से होता है, इसलिये इस योग में इस कर्मके क्षायिक और क्षायोपशमिक दोनों भाव बन जाते हैं । मात्र औपशमिक भाव नहीं घटित होता, क्योंकि, द्वितीयोपशम सम्यक्त्वके साथ मरा हुआ जीव मनुष्यों और तिर्यचों में नहीं उत्पन्न होता । वैक्रियिककाययोग और वैक्रियिकमिश्रका - ययोग में क्रियाकर्मके औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक तीनों भाव बन जाते हैं । कारण यह है कि देवोंमें क्षायिक और क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि जीव तो उत्पन्न होते हैं साथ ही इनमें द्वितीयोपशमसम्यग्दृष्टि जीव भी मरकर उत्पन्न होते हैं । आहारककाययोग और आहारकमि - काययोग छठे गुणस्थान में होता है । इसीसे यहां तपःकर्मका एक मात्र क्षायोपशमिक भाव कहा है । उपशमसम्यक्त्व और आहारककाययोग एक साथ नहीं होते । इसीसे इनके क्रियाकर्मके क्षायिक और क्षायोपशमिक दो भाव कहे हैं । कामंग काययोग में ईर्यापथकर्म और तपःकर्म केवलसमुद्घातकी अपेक्षा घटित होता है । इसीसे इस योग में उक्त दोनों कर्मोंका एक मात्र क्षायिक भाव कहा है। शेष कथन सुगम है । वेदमार्गणाके अनुवादसे तीन वेदवालोंका तथा चार कषाय, सामायिक और छेदोपस्थापनाशुद्धिसंयमका कथन ओघके समान है । इतनी विशेषता है कि इन मार्गणाओं मे ईर्यापथकर्म नहीं है । अपगतवेदवालोंके प्रयोगकर्म, समवधानकर्म और अधः कर्मका कथन ओघ के समान है पथकर्म ओर तपःकर्मका औपशमिक और क्षायिक भाव है । इसी प्रकार अ पग्यवाले Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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