________________
५, ४, ३१.)
कम्माणुओगद्दारे पओअकम्मादीणं अप्पाबहुअं
( १७५
एवमकसाय-जहाक्खाद-केवलणाणि-केवलदंसणि त्ति वत्तव्वं । णवरि केवलणाणिकेवलदसणीसु इरियावथकम्म-तवोकम्माणं उवसमियो भावो पत्थि । परिहारसुद्धिसंजदाणं सामाइयभंगो। णवरि किरियाकम्मरस उवसमियो भावो णथि । तवोकम्मस्स खओवसमियो भावो । सुहुमसांपराइयसुद्धिसंजदाणं अकसाइभंगो। गरि इरियावथकम्म णस्थि । संजदासंजद-असंजद-तिम्णिलेस्साणं तिरिक्खोघभंगो । तेउपम्मलेस्साणं परिहारसुद्धिसंजदभंगो । णवरि किरियाकम्मस्स उवसमिओ भावो अस्थि । खइयसम्माइट्ठीणमोघभंगो । णवरि किरियाकम्मरस खइओ चेव भावो . वत्तवो। वेदगसम्माइट्ठीसु पओअकम्म तवोकम्नाणं को भावो ? खओवसमिओ भावो । समोदाणकम्म-आधाकम्माणं ओदइओ भावो। उवसमसम्माइट्ठीसु पओअकम्म-समोदाणकम्म आधाकम्माणमोघभंगो। इरियावथकम्मस्स उवसमिओ भावो, तवोकम्मकिरियाकम्माणं उवसमिओ भावो? णवरि तवोकम्मरस खओवसमियो वि । अणाहाराणं कम्मइयभंगो । एवं भावो समत्तो। अप्पाबहुअंतिविहं-दन्वटदा पदेसटुदा दव्व-पदेसटुदा चेदि । दम्वटुदाए दुविहो णिद्देसो ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण सम्वत्थोवा इरियावथकम्मदव्वदा । तवोकम्मदवट्टदा संखेज्जगणा। को गुणगारो? संखेज्जा समया। किरियाकम्मदवढदा असंखेज्ज
यथाख्यातसंयमवाले, केवलज्ञानी और केवलदर्शनी जीवोंके कहना चाहिये । इतनी विशेषता है कि केवलज्ञानी और केवलदर्शनी जीवोंके ईर्यापथकर्म और तपःकर्मका औपशमिक भाव नहीं है । परिहारशुद्धिसंयत जीवोंके सामायिकसंपत जीवोंके समान भंग है। इतनी विशेषता है कि इनके क्रियाकर्मका औपशमिक भाव नहीं है । तपःकर्मका क्षायोपशमिक भाव है । सूक्ष्मसांपरायिकशुद्धिसंपत जीवोंके अकषायी जीवोंके समान भंग है । इतनी विशेषता है कि इनके ईर्यापथकर्म नहीं है । संयतासंयत, असंयत और तीन लेश्यावालोंके सामान्य तिर्यंचोंके समान भंग है । पीत और पद्म लेश्यावालोंके परिहारशुद्धिसंयत जीवोंके समान भंग है । इतनी विशेषता है कि क्रियाकर्मका औपशमिक भाव है । क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंके ओधके समान भंग है ।इतनी विशेषता है कि इनके क्रियाकर्म का एक मात्र क्षायिक भाव कहना चाहिये । वेदकसम्यग्दृष्टियोंके प्रयोगकर्म और तपःकर्मका कौन भाव है? क्षायोपशमिक भाव है। समवधानकर्म और अध:कर्मका ओदयिक भाव है । उपशमसम्यग्दृष्टियों के प्रयोगकर्म, सममवधानकर्म और अधःकर्मका कथन ओधके समान है । ईर्यापथकर्मका औपशमिक भाव है। तपःकर्म और क्रियाकर्मका औपशमिक भाव है । इतनी विशेषता है कि इनके तपःकर्मका क्षायोपशमिक भाव भी है। अनाहारकोंका कथन कार्मणकाययोगियों के समान है । इस प्रकार भावानुगम समाप्त हुआ।
अल्पबहुत्व तीन प्रकारका है-द्रव्यार्थता, प्रदेशार्थता, और द्रव्य-प्रदेशार्थता। द्रव्यार्थताकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है- ओघ और आदेश। उनमें से ओघकी अपेक्षा ईपिथकर्मकी द्रव्यार्थता सबसे स्तोक है । इससे तपःकर्मकी द्रव्यार्थता संख्यातगुणी है। गुणकार क्या है ? संख्यात समय गुणकार है । क्रियाकर्मकी द्रव्यार्थता असंख्यातगुणी है । गुणकार क्या है ?
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org