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________________ ५, ४, ३१. ) कम्माणुओगद्दारे पओअकम्मादीनं अप्पाबहुअं ( १७३ रिगईए रइएस अप्पप्पणो पदाणमोघभंगो | एवं पढमाए पुढवीए । बिदियादि जाव सत्तमि त्ति एवं चेव । णवरि किरियाकम्मस्स खइओ भावो णत्थि । तिरिक्खगदीए तिरिक्खेसु तिरिक्खाणं पचिदियतिरिक्खतिगस्स य अष्पष्पणो पदाणमोघमंगो । वरि जोणिणोसु किरियाकम्मस्स खइयो भावो णत्थि । पंचिदियतिरिक्खअपज्जत्ताणं पओअकम्म-समोदाणकम्म-आधा कम्माणमोघभंगो। एवं तसअपज्जत्त - सव्व एइंदिय सव्वविगलदिय पचिदियअपज्जत पंचकाय तिष्णिअण्णाणी - मणुसअ - पज्जत्त - अभवसिद्धिय- सासणसम्माइट्ठि सम्मामिच्छाइट्ठि - मिच्छाइट्ठि - x असण त्ति वत्तव्वं । देवगदीए देवेसु अध्यप्पणी पदाणमोघभंगो । सोधम्मीसाणप्पहूडि जाव सव्वट्टसिद्धि विमाणवासियदेवेत्ति ताव पढनपुढ विभंगो। भवणवासिय वाणवेंतर- जो दि सिदेवाणं बिदिय पुढविभंगो । - विशेषार्थ-प्रयोगकर्म में तीनों योग लिये गये हैं जो क्षायोपशमिक होते हैं। इससे यहां प्रयोगकर्मका क्षायोपशमिक भाव कहा है । यद्यपि सयोगकेवली के ज्ञानावरणादि कर्मोका क्षयोपशम नहीं होता, परन्तु पूर्वप्रज्ञापन नयकी अपेक्षा योगको क्षायोपशमिक मानकर उसका एक क्षायोपशमिक भाव ही लिया गया है । समवधानकर्ममें ज्ञानावरणादि कर्मों के बन्ध, उदय और सत्त्वके भेद विवक्षित हैं । यतः इनमें उदयकी प्रधानता है, इसलिये समवधानकर्मका औदयिक भाव कहा है । अधः कर्म औदारिक नामकर्मके उदयमें होता है, अतः इसका औदयिकपना स्पष्ट ही है । ईर्यापथकर्मका उपशमश्रेणिकी अपेक्षा औपशमिक भाव और क्षपकश्रेणिकी अपेक्षा क्षायिक भाव कहा है । तपःकर्म में क्षायोपशमिक, औपशमिक और क्षायिक तीनों प्रकारका चारित्र सम्भव होनेसे तथा क्रियाकर्ममें तीनों प्रकारका सम्यक्त्व सम्भव होने से इन दोनों का औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक यह तीनों प्रकारका भाव कहा है । यहां और जितनी मार्गण यें गिनाई हैं उनमें सब कर्मोंके उक्त भाव संभव होनेसे इनका कयत ओघ के समान कहा है । नरकगति में नारकियों में अपने अपने पदोंका भंग ओघ के समान है । इसी प्रकार पहली पृथिवी में जानना चाहिये । दूसरी से लेकर सातवीं पृथिवी तक इसी प्रकार जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इनके क्रियाकर्मका क्षायिक भाव नहीं होता । तिर्यंचगति में तिर्यंचों में तिर्यंच और पंचेन्द्रिय तिर्यचत्रिकके अपने अपने पदोंका भंग ओघके समान है । इतनी विशेषता है कि योनिनी तिर्यंचों में क्रियाकर्मका क्षायिक भाव नहीं होता । पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तकों के प्रयोगकर्म, समवधानकर्म और अधः कर्मका भंग ओघके समान है । इसी प्रकार त्रस अपर्याप्त, सब एकेन्द्रिय, सब विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय अपर्याप्त, पांच स्थावरकाय, तीन अज्ञानी, मनुष्य अपर्याप्त, अभव्य, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि सब मिथ्यादृष्टि और अमंज्ञी जीवोंके - कहना चाहिये । देवगति में देवोंमें अपने अपने पदोंका भंग ओघके समान है। सौधर्म - ऐशानस्वर्गसे लेकर सर्वार्थसिद्धि विमान तक रहनेवाले देवोंमें पहली पृथिवीके समान कथन है । भवनवासी, वानव्यन्तर और ज्योतिषी देवोंके दूसरी पृथिवी के समान भंग है । अ आ-काप्रतिषु ' खओ' इति पाठ 1 प्रतिषु ' सासणसम्माइट्ठि सव्वमिच्छाइट्टि ' इति पाठ: 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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