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________________ १७२ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड मणुस्सेसु उववण्णो । गम्भादिअट्टवस्साणमवरि अधापवत्तकरणं अपुवकरणं च कादण अप्पमत्तभावेण संजमं पडिवण्णो । पुणो पमत्तो जादो। तदो पमत्तापमत्तपरावत्तसहस्सं कादूण अपुव्वो अणियट्टी सुहमो खीणकसाओ च होदूण सजोगी जादो। तदो सजोगिपढमसमए जे णिज्जिण्णा ओरालियसरीरणोकम्मक्खंधा तेसि बिदियसमए आधाकम्मस्स आदी होदि । तदियसमयप्पहुडि अंतरं होदूण सदो सजोगिचरिमसमए पुव्वणिज्जिष्णक्खंधेसु बंधमागदेसु आधाकम्मस्स लद्धमंतरं । एवं गम्भादिअटुवस्सेहि (ति) समयाहियअट्टअंतोमहत्तब्भहिएहि ऊणियपुत्वकोडीहि आधाकम्मस्स उक्कस्संतरं । आहाराणुवादेण आहारीणमोघभंगो । अणाहाराणं कम्मइयभंगो । एवमंतरं समत्तं ।। भावाणुवादेण दुविहो णिद्देसो ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण पओअकम्मरस को भावो? खओवसमिओ भावो । समोदाणकम्म आधाकम्माणं को भावो ? ओदइयो भावो । इरियावथ कम्मस्स को भावो? उवसमियो वा खइयो वा भावो । तवोकम्म-किरियाकम्माणं को भावो ? उवसमिओ वा खइओ वा खओवसमियो वा भावो। एवं मणसतिण्णि-पंचिदिय पंचिदियपज्जत-तस-तसपज्जत्त-पंचमण पंचवचिजोगि-ओरालियकायजोगि-आभिणिसुद-ओहि-मणपज्जवणाणि संजद-चक्खु-अचक्खुओहिदंसणि-सुक्कलेस्सिय-भवसिद्धि-(सम्माइट्ठि) सणि-आहारीणं वत्तव्वं । वर्षका होनेपर अघःप्रवृत्तकरण और अपूर्वकरण करके अप्रमत्तभावके साथ संयमको प्राप्त हुआ, पुनः प्रमत्त हो गया। अनन्तर प्रमत्त और अप्रमत्त गुणस्थानके हजारों परावर्तन करके अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसाम्पराय और क्षीणकषाय होकर सयोगी हो गया । तदनन्तर सयोगीके प्रथम समयमें जो औदारिकशरीरके नोकर्मस्कन्ध निर्जीणं हुए उनकी अपेक्षा दूसरे समय में अधःकर्मकी आदि होती हैं । और तीसरे समयसे अन्तर होकर सयोगीके अन्तिम समयमें पूर्व निजीर्ण स्कन्धोंके बन्धको प्राप्त होनेपर अध:कर्मका अन्तरकाल उपलब्ध होता है । इस प्रकार अध:कर्मका उत्कृष्ट अन्तरकाल गर्भसे आठ वर्ष और तीन समय आठ अन्तर्मुहर्त कम एक पूर्वकोटि होता है । आहारमार्गणाके अनुवादसे आहारकोंका भंग ओघके समान है । अनाहारकोंका भंग कार्मणकाययोगियोंके समान है। इस प्रकार अनन्त रानुयोगद्वार समाप्त हुआ। भावानुयोगकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है- ओघ और आदेश । ओघसे प्रयोगकर्मका कौन भाव है ? क्षायोपशमिक भाव है। समवधानकर्म और अध:कर्मका कौन भाव है? औदयिक भाव है। ईर्यापथकर्मका कौन भाव है? औपशमिक भाव है या क्षायिक भाव है। तपःकर्म और क्रियाकर्मका कौन भाव है। औपशमिक भाव है या क्षायिकभाव है या क्षायोपशमिक भाव है। इसी प्रकार मनुष्यत्रिक, पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, वस, त्रसपर्याप्त, पांच मनोयोगी, पांच वचनयोगी । औदारिककाययोगी, आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, अवधि दर्शनी, शुक्ललेश्यावाले भव्य सिद्ध, ( सम्यग्दृष्टि ) संज्ञी और आहारक जीवोंके कहना चाहिए । काप्रती · अंतोमुहुत्तव्वहियोहि ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org .
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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