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________________ ( ९७ ५, ४, ३१. ) कम्माणुओगद्दारे पओअकम्मादीणं दव्वपमाणं दव्व-पदेस*ट्टदाणमोघभंगो। पओअकम्मादिपदाणं पदेसद्वदाए गुणगारो जाणिदूण भाणिदव्वो। एवं तसदोणि-पंचमण-पंचवचिजोगि-इत्थि-पुरिसवेद-आभिणि-सुदओहिणाण-चक्खुदंसण-ओहिदसण तेउ पम्म सुक्कलेस्सिय- सम्माइटि-खइयसम्माइट्टिवेदगससम्माइटिउवसमसम्माइट्टिसणि ति। णरि अप्पप्पणो पदाणि पदेसट्टदागुणगारं च जाणिदूण वत्तव्वं। देवगदीए देवेसु भवणवासिय-वाणवेंतर-जोदिसियप्पहुडि जाव सोधम्मीसाणे त्ति ताव णारगभंगो। सणक्कुमारप्पहुडि जाव अवराइदे त्ति ताव बिदियपुढविभंगो। वेउविय-वे उब्वियमिस्सकायजोगीणं देवभंगो। सवठे सव्वपदाणं मणुस्सपज्जत्तभंगो। इंदियाणुवादेण एइंदिएसु सव्वपदा अणंता। एवं सव्वएइंदिय-सव्ववणफदिकाइय-मदिसुदअण्णाणि-अभवसिद्धि-मिच्छाइट्टि असण्णीणं वत्तव्वं । बादरवणप्फदिपत्तैयसरीराणं बादरपुढविकायभंगो। विभंगणाणीणं देवभंगो। णवरि किरियाकम्म णस्थि। आहारआहारमिस्सकायजोगीसु पओअकम्म-तवोकम्म-किरियाकम्माणं दवढदा संखेज्जापदे. सट्टदा संखेज्जा लोगा। समोदाणकम्मदव्वदृदा संखेज्जा। तस्सेव पदेसट्टदा अणंता, संखेज्जरूवेहि * एगजीवकम्मपदेसेसु गुणिदेसु तस्स पदेसद्वदुप्पत्तीदो। आधाकम्मदव्वट्ठ पंचेन्द्रिय द्विकका कथन सामान्य मनुष्योंके समान है । इतनी विशेषता है कि इनमें क्रियाकर्मकी द्रव्यार्थता और प्रदेशार्थताका कथन ओघके समान है। यहां प्रयोगकर्म आदि पदोंकी प्रदेशार्थताका गुणकार जानकर कहना चाहिये । इसी प्रकार त्रसद्विक, पांच मनोयोगी, पांच वचनयोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, चक्षुदर्शनी, अवधिदर्शनी, पीतलेश्यावाले, पद्मलेश्यावाले, शुक्ललेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि और संज्ञी जीवोंके जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि अपने अपने पदों और प्रदेशार्थताके गुणकारका जानकर कथन करना चाहिये । देवगतिमें देवोंमें भवनवासी, वानव्यन्तर और ज्योतिषियोंसे लेकर सौधर्म और ऐशान कल्प तकके देवोंमें वहां सम्भव पदोंकी द्रव्यार्थता और प्रदेशार्थताका कथन नारकियोंके समान है। सनत्कुमारसे लेकर अपराजित तकके देवों में वहां सम्भव पदोंकी द्रव्यार्थता और प्रदेशार्थताका कथन दूसरी पृथिवीके समान है । वैक्रियिककाययोगी और वैक्रियिकमिश्रकाययोगियोंका कथन देवोंके समान है । सर्वार्थसिद्धि में सब पदोंका कथन मनुष्य पर्याप्तकोंके समान है। इन्द्रियमार्गणाके अनुवादसे एकेन्द्रियोंमें सब पद अनन्त हैं। इसी प्रकार सब एकेन्द्रिय, सब वनस्पतिकायिक, मतिअज्ञानी, श्रुताज्ञानी, अभव्यसिद्धिक, मिथ्यादृष्टि और असंज्ञियोंके कहना चाहियोबादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर जीवोंका भंग बादर पृथिवीकायिक जीवोंके समान है। विभंगज्ञानियोंका कथन देवोंके समान है । इतनी विशेषता है कि इनके क्रियाकर्म नहीं होता। आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जोवोंके प्रयोगकर्म, तपःकर्म और क्रियाकर्मकी द्रव्यार्थता संख्यात है, और प्रदेशार्थता संख्यात लोक प्रमाण है । समवदानकर्मकी द्रव्यार्थता संख्यात है और उसीकी प्रदेशार्थता अनंत है, क्योंकि, संख्यात रूपोंसे एक जीव के कर्म प्रदेशोंके गुणित करनेपर उसकी प्रदेशार्थता उत्पन्न होती है। तथा अधःकर्मकी द्रव्यार्थता और प्रदेशार्थता अनन्त ४ ताप्रतो । किरियाकम्मपदेस- ' इति पाठा। * अप्रती ' संखेज्जारूवेहि ' इति पाठ: 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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