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________________ १८८ ) छक्खंडागमे बग्गणा-खंड ( ५, ४, ३१. कम्मपदेसट्टदा अणंतगुणा को गुणगारो? अभवसिद्धिएहि अणंतगुणो सिद्धाणमणंतभागो। कुदो? एक्केक्कम्हि जीवे अभवसिद्धिएहि अणंतगुण-सिद्धाणमणंतभागमेत्तकम्मपरमाणणमुवलंभादो। एवं भवसिद्धियाणं वत्तव्वं । एवं कायजोगि-ओरालियकायजोगि-अचक्खुदंसणि-आहारीणं पि वत्तव्वं । णवरि पओअकम्म-समोदाणकम्मदव्वदाओ दो वि सरिसाओ अणंतगणाओ । णिरयगदीए णेरइएसु सम्वत्थोवा किरियाकम्मदव्वदा । पओअकम्म-समोदाण कम्मदव्वदाओ दो वि सरिसाओ असंखेज्जगणाओ।को गणगारो? जगपदरासंखेज्ज. दिभागस्स असंखेज्जदिभागो । किरियाकम्मपदेसट्टदा असंखेज्जगणा । को गुणगारो? संखेज्जाओ सेडीओ। पओअकम्मपदेसट्टदा असंखेज्जगुणा । को गुणगारो ? जेरइयाणमसंखेज्जदिभागो। समोणकम्मपदेसटुदा अणंतगुणा । एवं सतसु पुढवीसु, देवा जाव सहस्सारया, वेउब्वियकायजोगि-वेउवियमिस्सकायजोगि त्ति वत्तव्वं । आणदादि जाव णवगेवज्ज त्ति देवेसु सव्वत्थोवा किरियाकम्मदव्वदा। पओअकम्म-समोदाणकम्मदव्वदाओ दो वि सरिसाओ विसेसाहियाओ। किरियाकम्मपदे. सट्टदा असंखेज्जगुणा। को गुणगारो? लोगोकिंचूणो। पओअकम्मपदेसट्टदा विसेसाहिया हैं । इससे समवदानकर्मकी प्रदेशार्थता अनन्तगुणी है । गुणकार क्या है ? अभव्योंसे अनन्तगुणी और सिद्वोंके अनन्तवें भागप्रमाण गुणकार है, क्योंकि, एक एक जीवमें अभव्योंसे अनन्तगुणे और सिद्धोंके अनन्तवें भागप्रमाण कर्मपरपाणु उपलब्ध होते हैं । इसी प्रकार भव्य जीवोंके कहना चाहिये । काययोगी, औदारिककाययोगी, अचक्षुदर्शनी और आहारक जीवोंके भी इसी प्रकार कहना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इनके प्रयोगकर्म और समवदानकर्मकी द्रव्यार्थतायें दोनों ही समान होकर अनन्तगुणी हैं। नरकगतिमें नारकियोंमें क्रियकर्मकी द्रव्यार्थता सबसे स्तोक है। इससे प्रयोगकर्म और समवदानकर्म दोनोंकी द्रव्यार्थता समान होकर असंख्यातगुणी है । गुणकार क्या है ? जगप्रतरके असख्यातवें भागका असंख्यातवां भाग गुणकार है । इससे क्रियाकर्मकी प्रदेशार्थता असंख्यातगुणी है । गुणकार क्या है ? संख्यात जगश्रेणियां गुणकार है । इससे प्रयोगकर्मकी प्रदेशार्थता असंख्यातगुणी है । गुणकार क्या है ? नारकियोंका असंख्यातवां माग गुणकार है । इससे समवदानकर्मकी प्रदेशार्थता अनन्तगुणी है। इसी प्रकार सातों पृथिवियोंमें तथा सहस्रार कल्प तकके देवों में, वैक्रियिककाययोगी और वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें कहना चाहिये । आनत कल्पसे लेकर नौ ग्रैवेयक तकके देवोंमें क्रियाकर्मकी द्रव्यार्थता सबसे स्तोक है । इससे प्रयोगकर्म और समवधानकर्म दोनोंकी द्रव्यार्थता समान होकर विशेष अधिक है । इससे क्रियाकर्मकी प्रदेशार्थता असंख्यातगुणी है । गुणकार क्या है ? कुछ कम लोक गुणकार है । प्रयोगकर्मकी प्रदेशार्थता विशेष अधिक है । कितनी अधिक है ? पल्योपमके असंख्यातवें अ-आ-प्रत्यो. ' असंखेज्जाओ ' इति पाठ: 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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