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________________ ४ ) प्रस्तावना भावस्पर्श - स्पर्शविषयक शास्त्रका जानकार और वर्तमान में उसके उपयोगवाला जीव भावस्पर्श कहलाता है । जो स्पर्शविषयक शास्त्रका ज्ञाता नहीं हैं, परन्तु स्पर्शरूप उपयोग से उपयुक्त है, उसकी भी भावस्पर्श संज्ञा है । अथवा जीव और पुद्गल आदि द्रव्योंके जो ज्ञान आदि भाव होते हैं उनके सम्बन्धको भी भावस्पर्श कहते हैं । इस प्रकार ये कुल १३ स्पर्श हैं । इनमेंसे इस शास्त्र में कर्मस्पर्शसे ही प्रयोजन है, क्योंकि यह शास्त्र अध्यात्मविद्याका विवेचन करता है, इसलिए यहां अन्य स्पर्श नहीं लिए गये हैं और न स्पर्शनामविधान आदि अन्य अनुयोगद्वारोंका आलम्बन लेकर उनका विचार ही किया है । उसमें भी कर्मका विवेचन वेदना आदि अनुयोगद्वारों में विस्तार के साथ किया है, इसलिए यहां उसका भी कर्मस्पर्शनयविभाषणता आदि अनुयोगद्वारोंका आलम्बन लेकर विचार नही किया है। २ कर्म अनुयोगद्वार कर्मका व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है क्रिया । निक्षेपव्यवस्थाके अनुसार इसके नामकर्म, स्थापनाकर्म, द्रव्यकर्म, प्रयोगकर्म, समवदानकर्म, अधः कर्म, ईर्यापथकर्म, तपःकर्म, क्रियाकर्म और भावकर्म ये दस भेद हैं। साधारणतः कर्मका कर्मनिक्षेप, कर्मनयविभाषणता आदि सोलह अनुयोगद्वारोंका आलम्बन लेकर विचार किया जाता है। यहां सर्वप्रथम कर्मनिक्षेपके दस भेद गिनाकर किस कर्मको कौन नय स्वीकार करता है, यह बतलाया गया है, । इसके बाद प्रत्येक निक्षेपके स्वरूपपर प्रकाश डाला गया है । नयके पांच भेद पहले लिख आयें हैं । उनमें से नैगमनय, व्यवहारनय और संग्रहनय सब कर्मोंको विषय करते हैं । ऋजुसूत्रनय स्थापना कर्म के सिवा शेष नौ कर्मोंको स्वीकार करता हैं । तथा शब्दनय नामकर्म और भावकर्मको ही स्वीकार करता है । कारण स्पष्ट है । नामकर्म और स्थापनाकर्म सुगम हैं । जीव या अजीवका 'कर्म' ऐसा नाम रखना नामकर्म हैं । काष्ठकर्म आदिमें तदाकार या अतदाकार कर्मकी स्थापना करना स्थापनाकर्म है । द्रव्यकर्म - जिस द्रव्यकी जो सद्भाव क्रिया हैं । उदाहरणार्थ- ज्ञान दर्शन रूपसे परिणमन करना जीव द्रव्यकी सद्भाव क्रिया है । वर्ण, गन्ध आदि रूपसे परिणमन करना पुद्गल द्रव्यकी सद्भाव किया है। जीवों और पुद्गलोंके गमनागमन में हेतुरूपसे परिणमन करना अधर्म द्रव्यकी सद्भाव क्रिया है । सब द्रव्योंके परिणमन में हेतु होना काल द्रव्यकी सद्भाव क्रिया है । अन्य द्रव्यों के अवकाशदानरूपसे परिणमन करना आकाश द्रव्यकी सद्भाव क्रिया है। इस प्रकार विवक्षित क्रिया रूपसे द्रव्योंके परिणमनका जो स्वभाव है वह सब द्रव्यकर्म है । प्रयोगकर्म - मनः प्रयोगकर्म, वचनप्रयोगकर्म और कायप्रयोगकर्मके भेदसे प्रयोगकर्म तीन प्रकारका है । मन, वचन और काय आलम्बन हैं । इनके निमित्तसे जो जीवका परिस्पंद होता है उसे प्रयोगकर्म कहते हैं । मनःप्रयोगकर्म और वचनप्रयोगकर्म मंसे प्रत्येक सत्य, असत्य, उभय और अनुभयके भेंदसे चार प्रकारका है । कायप्रयोगकर्म औदारिकशरीर कायप्रयोगकर्म आदिके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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