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विषय परिचय
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वैसे तो परमाणु भी सावयव होता है, अन्यथा परमाणुओंके संयोगसे स्कन्धकी उत्पत्ति नहीं हो सकती । इसलिए दो या दोसे अधिक परमाणुओंका भी एकदेशस्पर्श होता है ।
त्वकस्पर्श - वृक्षकी छालको त्वक और पपडीको नोत्वक् कहते हैं। तथा सूरण, अदरख' प्याज और हलदी आदिकी बाह्य पपडीको भी नोत्वक कहते है । द्रव्यका त्वचा और नोत्वचाके साथ जो स्पर्श होता है उसे त्वक्स्पर्श कहते हैं। त्वचा और नोत्वचा ये स्कन्धके ही अवयव हैं। इसलिये पृथक् द्रव्य न होनेसे इसका द्रव्यस्पर्शमें अन्तर्भाव नहीं किया है। यहां त्वचा और नोत्वचाके एक और नाना भेद करके आठ भंग उत्पन्न करने चाहिए। ये भेद वीरसेन स्वामीने लिखे हैं, इसलिए उनका अलगसे विवेचन नहीं किया है । यहां त्वचा और नोत्वचाका द्रव्यके साथ अथवा परस्पर स्पर्श विवक्षित है, इतना विशेष जानना चाहिये।
सर्वस्पर्श - एक द्रव्यका दूसरे द्रव्य के साथ जो सर्वांग स्पर्श होता है उसे सर्वस्पर्श कहते है। उदाहरणार्थ एक आकाशप्रदेश में बन्धको प्राप्त हुए दो परमाणुओंका सर्वांग स्पर्श देखा जाता है। इसी प्रकार अन्य द्रव्योंका यथासम्भव सर्वस्पर्श जानना चाहिए।
स्पर्शस्पर्श - स्पर्श गुणके आठ भेद हैं । उनका स्पर्शन इन्द्रियके साथ जो स्पर्श होता है उसे स्पर्शस्पर्श कहते है । यहांपर कर्कश आदि गुणोंके परस्पर स्पर्शकी विवक्षा नहीं है, क्योंकि ऐसा माननेपर अन्य रूप आदि गुणोंका भी स्पर्श लेना पडेगा । किन्तु सूत्र में स्पर्शस्पर्शसे कर्कश आदि आठ प्रकारके स्पर्शका ही ग्रहण किया है। इससे स्पष्ट है कि यहां कर्कश आदिका परस्पर स्पर्श विवक्षित नहीं है ।
कर्मस्पर्श - ज्ञानावरण आदिके भेदसे कर्म आठ प्रकारके हैं । इनका तथा इनके विस्रसोप चयोंका जीवके साथ जो सम्बन्ध है वह सब कर्मस्पर्श कहलाता है। ज्ञानावरणादि कुल कर्म आठ हैं। इनमेंसे प्रत्येक कर्मका अपने साथ व अन्य कर्मों के साथ सम्बन्ध है, अतः कुल चौंसठ भंग होते हैं। उनमेंसे पुनरुक्त २८ भंगोंको कम कर देनेपर ३६ अपुनरुक्त भंग शेष रहते हैं।
बन्धस्पर्श - औदारिकशरीरका औदारिकशरीरके साथ, तथा इसी प्रकार अन्य शरीरोंका अपने अपने साथ जो स्पर्श होता है उसे बन्धस्पर्श कहते हैं । कर्मका कर्म ओर नोकर्मके साथ तथा नोकर्मका नोकर्म और कर्मके साथ स्पर्श होता है, यह दिखलाने के लिए कर्मस्पर्श और बन्धस्पर्शको द्रव्यस्पर्शसे अलग कहा है । इस बन्धस्पर्शके कुल भंग २३ हैं। उनमेंसे ९ पुनरुक्त भंग अलग कर देनेपर १४ अपुनरुक्त भंग शेष रहते हैं । वीरसेन स्वामीने इनका अलगसे निर्देश किया ही है।
भव्यस्पर्श - जो आगे स्पर्श करने योग्य होंगे, परन्तु वर्तमान में स्पर्श नहीं करते, वह भव्यस्पर्श कहलाता है । मूल सूत्र में इसके कुछ उदाहरण इस प्रकार दिए हैं- विष, कूट, यन्त्र, पिंजरा, कन्दक और जाल आदि तथा इनको करनेवाले और इन्हें इच्छित स्थानमें रखनेवाले। यद्यपि इनका वर्तमानमें अन्य पदार्थसे स्पर्श नहीं हो रहा है, पर आगे होगा; इसलिए इसकी भव्यस्पर्श संज्ञा हैं।
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