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________________ ५, ४, २६. ) कम्माणुओगद्दारे तवोकम्मपरूवणा बादरकायजोगेण तमेव बादरकायजोगं णिरंभदि । तदो अंतोमुत्तं गंतूण सुहुमकायजोगेण सुहुममणजोगं णिरुंभदि । तदो अंतोमुहुत्तेण सुहुमकायजोगण सुहमवचिजोगं णिरुभदि। तदो अंतोमुहुत्तेण सुहुमकायजोगेण सुहुमउस्सासणिस्सासं णिरुंभदि। तदो अंतोमुहुत्तं गंतूण सुहुमकायजोगेण सुहमकायजोगं णिरुंभमाणो इमाणि करणाणि करेदिपढमसमए अपुव्वफद्दयाणि करेदि पुव्वफद्दयाणं हेह्रदो। आदिवग्गणाए अविभागपडिच्छेदाणमसंखेज्जदिभागमोकड्डदि जीवपदेसाणं च असंखेज्जदिभागमोकड्डदि। एवमंतोमुहुत्तमपुवफद्दयाणि करेदि । असंखेज्जगुणहीणाए सेडीए जीवपदेसाणं च असंखेज्जगुणाए सेडीए। अपुवफद्दयागि सेडीए असंखेज्जदिभागो सेडिवग्गमूलस्स वि असंखेज्जदिभागो पुवफद्दयाणं पि असंखेज्जदिभागो अपुवफद्दयाणि सव्वाणि । एवमपुव्वफद्दयकरणविहाणं गदं। ___एत्तो अंतोमहत्तं किट्टीओ करेदि। अपुव्वफद्दयाणमादिवग्गणाए अविभागपडिच्छेदाणमसंखेज्जदिभागमोकड्डुदि । जीवपदेसाणमसंखेज्जदिभागमोकडुदि। एत्य अंतोमहत्तं किट्टीओ करेदि असंखेज्जगुणहीणाए सेडीए। जीवपदेसाणमसंखेज्जगुणाए सेडीए ओकइदि। किट्टिगुणगारो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो। किट्टोओ सेडीए असंखज्जकाययोगके द्वारा उसी बादर काययोगका निरोध करता है । फिर अन्तर्मुहूर्त में सूक्ष्म काययोगके द्वारा सूक्ष्म मनोयोगका निरोध करता है। फिर अन्तर्मुहुर्तमें सूक्ष्म काययोगके द्वारा सूक्ष्म वचन योगका निरोध करता है। फिर अन्तर्मुहूर्त में सूक्ष्म काययोगके द्वारा सूक्ष्म उच्छ्वासनिश्वासका निरोध करता है। फिर अन्तर्मुहूर्त काल जानेपर सूक्ष्म काययोग के द्वारा सूक्ष्म काययोगका निरोध करता हुआ इन करणोंको करता है। प्रथम समय में पूर्व स्पर्धकोंके नीचे अपूर्व स्पर्धक करता है। ऐसा करते हुए प्रथम वर्गणाके अविभाग प्रतिच्छेदोंके असंख्यातवें भागका अपकर्षण करता है, और जीव प्रदेशोंके असंख्यात में भागका अपकषण करता है। इस प्रकार अन्तर्मुहूर्त कालतक अपूर्व स्पर्धक करता है। ये अपूर्व स्पर्धक प्रति समय पहले समयमें जितने किय गये उनसे अगले द्वितीयादि समयों में असंख्यात गुणे हीन श्रेणिरूपसे किये जाते हैं, और पहले समय में जितने जीवप्रदेशोंका अपकर्षण कर किये उनसे अगले समयोंमें संख्यातगुणे श्रेणिरूपसे जीवप्रदेशोंका अपकर्षण कर किये जाते हैं। इस प्रकार किये गये सब अपूर्व स्पर्धक जगश्रेणिके असंख्यातवें भागप्रमाण जगणि के प्रथम वर्गमूलके असंख्यातवें भाग प्रमाण और पूर्व स्पर्धाकोंके भी असंख्यातवें भाग प्रमाण होते है। इस प्रकार अपूर्व स्पर्धक करने की विधिका कथन समाप्त हुआ। इसके बाद अन्तर्महर्त कालतक कृष्टियोंको करता है । और ऐसा करते हुए अपूर्व स्पर्धकोंकी प्रथम वर्गणाके विभाग प्रतिच्छेदोंके असंख्यातवें भागका अपकर्षण करता है और जीवप्रदेशोंके असंख्यातवें भागका अपकर्षण करता है। इस प्रकार यहां 3 हर्त काल तक कृष्टियां करता है। ये कृष्टियां प्रति समय पहले समय में जितनी को गई उनसे आगे द्वितीयादि समयों में असंख्यातगुणीहीन श्रेणिरूपसे की जाती है, और पहले समय में जितने जीव प्रदेशोंका अपकर्षण कर की गई उनसे अगले समयोंमें असंख्यातगुणी श्रेणिरूपसे जीव प्रदेशोंका अपकर्षण कर की जाती हैं। कृष्टिगुणकार पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। सब कृष्टियां Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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