SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 119
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८६ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड ( ५, ४, २६. दिभागो। अपुव्वफद्दयाणं पि असंखेज्जदिभागो। किट्टीकरणे णिट्ठिदे तदो से काले पुव्वफद्दयाणि अपुव्वफद्दयाणि च णासेइ। अंतोमुहुत्तं किट्टीगदजोगो होदि। सुहुमकिरियं अप्पडिवादि ज्झाणं ज्झायदि। किट्टीणं चरिमसमए असंखेज्जे भागे णासेइ । एदम्हि, जोगणिरोहकाले सुहुमकिरियमप्पडिवादि ज्झाणं ज्झायदि त्ति जंभणिदं तण्ण घडदे; केवलिस्स विसईकयासेसदत्वपज्जायस्स सगसव्वद्धाए एगरूवस्स अणिदियस्स एगवत्थुम्हि मणणिरोहाभावादो। ण च मणणिरोहेण विणा ज्झाणं संभवदि; अण्णत्थ तहाणुवलंभादो त्ति? ण एस दोसो; एगवत्थुम्हि चिताणिरोहो ज्झाणमिदि जदि घेप्पदि तो होदि दोसो। ण च एवमेत्थ घेप्पदि। पुणो एत्थ कधं घेप्पदि त्ति भणिदे जोगो उवयारेण चिता; तिस्से एयग्गेण णिरोहो विणासो जम्मि तं ज्झाणमिदि एत्थ घेत्तव्वं; तेण ण पुन्वुत्तदोससंभवो त्ति । एत्थ गाहाओ तोयमिव णालियाए तत्तायसभायणोदरत्थं वा । परिहादि कमेण तहा जोगजलं ज्झाणजलणेण ।। ७४ ।। जगश्रेणिके असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं और अपूर्व स्पर्धकोंके भी असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं। कृष्टिकरणक्रियाके समाप्त हो जानेपर फिर उसके अनन्तर समयमें पूर्व स्पर्धकोंका और अपूर्व स्पर्धकोंका नाश करता है। अन्तर्मुहूर्त कालतक कृष्टिगत योगवाला होता है, तथा सूक्ष्म क्रियाप्रतिपाति ध्यानको ध्याता है। अन्तिम समयमें कृष्टियोंके असंख्यात बहुभागका नाश करता है ! शंका- इस योगनिरोधके काल में केवली जिन सूक्ष्म क्रियाप्रतिपाती ध्यानको ध्याते हैं, यह जो कथन किया है वह नहीं बनता, क्योंकि, केवली जिन अशेष द्रव्य पर्यायोंको विषय करते हैं, अपने सब कालमें एकरूप रहते हैं और इन्द्रिय ज्ञानसे रहित हैं; अतएव उनका एक वस्तुमें मनका निरोध करना उपलब्ध नहीं होता। और मनका निरोध किये विना ध्यानका होना सम्भव नहीं है, क्योंकि, अन्यत्र वैसा देखा नहीं जाता? समाधान- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, प्रकृतमें एक वस्तुमें चिन्ताका निरोध करना ध्यान है, यदि ऐसा ग्रहण किया जाता है तो उक्त दोष आता है। परन्तु यहां ऐसा ग्रहण नहीं करते हैं। शंका- तो यहां किस रूपमें ग्रहण करते हैं ? समाधान- यहां उपचारसे योगका अर्थ चिन्ता है। उसका एकाग्ररूपसे निरोध अर्थात् विनाश जिस ध्यानमें किया जाता है वह ध्यान, ऐमा यहां ग्रहण करना चाहिये, इसलिये यहां पूर्वोक्त दोष सम्भव नहीं है ।। इस विषयमें गाथायें जिस प्रकार नाली द्वारा जलका क्रमशः अभाव होता है, या तपे हुए लोहके पात्र में स्थित जलका क्रमशः अभाव होता है, उसी प्रकार ध्यानरूपी अग्निके द्वारा योगरूपी जलका क्रमशः नाश होता है ।। ७४ ।। # अ-आप्रत्योः ‘णासेडी एवं हि', ताप्रती 'भागणासेडि । एवं हि' इति पाठ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org ..
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy