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________________ ( ८७ ........ ५, ४, २६. ) कम्माणुओगद्दारे तवोकम्मपरूवणा जह सव्वसरीरगयं मंतेण विसं णिरुभए डंके। तत्तो पुणोऽवणिज्जदि पहाणझर मंतजोएण ।। ७५ ॥ तह बादरतणुविसयं जोगविसं ज्झाणमंतबलजुत्तो। अणुभाव म्मि णिरुंभदि अवणेदि तदो वि जिणवेज्जो ।। ७६ ।। एवं तदियसुक्कज्झाणपरूवणा गदा। संपहि चउत्थसुक्कज्झाणपरूवणं कस्सामो। तं जहा-समुच्छिन्ना क्रिया योगो यस्मिन् तत्समुच्छिन्नक्रियम् । समुच्छिन्नक्रियं च * अप्रतिपाति च समुच्छिन्नक्रियाप्रतिपाति ध्यानम् । श्रुतरहितत्वात् अवितर्कम् । जीवप्रदेशपरिस्पंदाभावादवीचारं अर्थव्यंजनयोगसंक्रांत्यभावाद्वा । एत्थ गाहा अविदक्कमवीचारं अणियट्टी अकिरियं च सेलेसि। ज्झाणं णिरुद्धजोगं अपच्छिम उत्तमं सुकं ।। ७७ ।। एदस्स अत्थो-जोगम्हि णिरुद्धम्हि आउसमाणि कम्माणि होति अंतोमहत्तं। से काले सेलेसियं पडिवज्जदि समुच्छिण्णकिरियमणियट्टि सुक्कज्झाणं ज्झायदि। कधमत्थ ज्झाणववएसो? एयग्गेण चिताए जीवस्स गिरोहो परिप्फंदाभावो ज्झाणं णाम। किं जिस प्रकार मन्त्रके द्वारा सब शरीरमें भिदे हुए विषका डंकके स्थान में निरोध करते हैं, और प्रधान क्षरण करनेवाले मन्त्रके बलसे उसे पुनः निकालते हैं ।। ७५ ।। उसी प्रकार ध्यानरूपी मन्त्रके बलसे युक्त हुआ यह सयोगिकेवली जिनरूपी वैद्य बादर शरीरविषयक योगविषको पहले रोकता है और इसके बाद उसे निकाल फेंकता है ।। ७६ ।। इस प्रकार तीसरे शुक्लध्यानका कथन समाप्त हुआ। अब चौथे शुक्लध्यानका कथन करते हैं। यथा- जिसमें क्रिया अर्थात् योग सम्यक प्रकारसे उच्छिन्न हो गया है वह समुच्छिन्नक्रिय कहलाता है। और समुच्छिन्नक्रिय होकर जो अप्रतिपाती है वह समुच्छिन्नक्रियाप्रतिपाती ध्यान है। यह श्रुतज्ञानसे रहित होनेके कारण अवितर्क है। जीवप्रदेशोंके परिस्सन्दका अभाव होनेसे अवीचार है; या अर्थ, व्यञ्जन और योगकी संक्रान्तिके अभाव होने से अवीचार है । इस विषयमें गाथा ___ अन्तिम उत्तम शुक्ल ध्यान वितर्करहित हैं, वीचाररहित है, अनिवृत्ति है, क्रिया रहित है, शैलेशी अवस्थाको प्राप्त है और योगरहित है ।। ७७ ।।। इसका अर्थ-योगका निरोध होनेपर शेष कर्मों की स्थिति आयुकर्मके समान अन्तर्महर्त होती है । तदनन्तर समय में शैलेशी अवस्थाको प्राप्त होता है, और समुच्छिन्नक्रिय अनिवृत्ति शुक्लध्यानको ध्याता है। शंका- यहां ध्यान संज्ञा किस कारणसे दी गई है ? समाधान- एकाग्ररूपसे जोवके चिन्ताका निरोध अर्थात् परिस्पन्दका अभाव होना ही ध्यान, है, इस दृष्टिसे यहां ध्यान संज्ञा दी गई है। अ-ताप्रत्योः 'तणवीसप प्रतिषु ‘दके' इति पाठः । ताप्रतौ 'पहाणयर' इति पाठः । जोगविसं' इति पाठः । ॐ अप्रतौ 'यस्मिन् तत्समुच्छिन्न क्रियं च ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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