________________
छक्खंडागमे वग्गणा - खंड
( ५, ४, ३१.
कम्मक्खंधाणमणंताणं गहणादो । तस्स पदेसदृदा वि अणंता; एक्केक्कम्हि णोकम्मक्खंधे अनंताणं परमाणूणमुवलंभादो । इरियावथ तवोकम्मदव्वदृदा केवडिया ? संखेज्जा । कुदो? महव्वयधारीणं जीवाणं मणुस्सपज्जत्ते मोत्तूण अण्णत्थ अणुवलंभादो । तवोकम्मपदेसट्टदा असंखेज्जा; घणलोगेण संखेज्जमहव्वइजीवेसु गुणिदेसु संखेज्जघणलोवलंभादो । किरियाक म्मदव्वट्टदा असंखेज्जा । कुदो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तसम्माइट्ठीसु चेव किरियाकम्मुवलंभादो । तस्स पदेसदा वि असंखेज्जा । कुदो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागसम्माइद्विरासिणा घणलोगे गुणिदे असंखेज्जलोगपमाणुपत्तदो । एवं कायजोगि ओरालियकायजोगि ओरालिय मिस्स कायजोगिकम्मइयकायजोगि अचक्खुदंसणिभवसिद्धिय आहारअणाहारयाणं वत्तत्वं । णवरि ओरालिय मिस्स कायजोगीसु किरियाकम्मदव्वद्वदा संखेज्जा ।
रियगदीए रइए पओअकम्म-समोदाणकम्म किरियाकम्माणं दव्वदा पदेसट्टदाच केवडिया? असंखेज्जा । णवरि समोदाणकम्मपदेसदा अगंता; पदरस्स असंखेज्जदिभागमेत्तरासिणा अभवसिद्धिएहितो अनंतगुणे सिद्धानमणंतिमभागे कम्मपदेसे गुण अतरासिसमुप्पत्ती दो| एवं पढमाए पुढवीएव तव्वं । विदियादि जाव सत्तमित्ति एवं चेव । गवरि सेड.ए असंखेज्जदिभागेण घणलोगे गुणिदे पओअकम्मपदेसदा होदि; तत्थ नोकर्मस्कन्धमें अनन्त परमाणु पाये जाते हैं ।
।
पथकर्म और तपः कर्म की द्रव्यार्थता कितनी है ? संख्यात है, क्योंकि, महाव्रतधारी जीव मनुष्यपर्यातकों को छोड़कर अन्यत्र नहीं पाये जाते । तपःकर्मकी प्रदेशार्थता असंख्यात है, क्योंकि, संख्यात महाव्रतधारियोंको घनलोकके द्वारा गुणित करनेपर संख्यात घनलोक उपलब्ध होते हैं । क्रियाकर्म की द्रव्यार्थता असंख्यात है, क्योंकि, पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र सम्यग्दृष्टियोंमें ही क्रियाकर्म पाया जाता है । और इसकी प्रदेशार्थता भी असंख्यात है, क्योंकि, पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र सम्यग्दृष्टि राशिद्वारा घनलोकके गुणित करने पर असंख्यात लोकोंकी उत्पत्ति होती है । इसी प्रकार काययोगी, औदारिककाययोगी, औदारिक मिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, अचक्षु दर्शनी भव्यसिद्धिक, आहारक और अनाहारक जीवोंका कथन करना चाहिये । इतनी विशेषता है कि औदारिकमिश्रकाययोगियों में क्रियाकर्म की द्रव्यार्थता संख्यात है । नरकगति में नारकियोंमें प्रयोगकर्म, समवदानकर्म, और क्रियाकर्म की द्रव्यार्थता और प्रदेशार्थता कितनी है ? असंख्यात है । इतनी विशेषता है कि समवदान कर्मकी प्रदेशार्थता अनन्त है, क्योंकि, जगप्रतरके असंख्यातवें भागप्रमाण राशिद्वारा अभव्योंसे अनन्तगुणे और सिद्धोंसे अनन्तवेंभागप्रमाण कर्मप्रदेशों को गुणित करनेपर अनन्तराशिकी उत्पत्ति होती है । इसी प्रकार प्रथम पृथिवी में कथन करना चाहिये । दूसरीसे लेकर सातवीं पृथिवीतक इसी प्रकार कथन करना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इन पृथिवयोमे जगश्रेणिके असंख्यातवें भागसे घनलोक के
९४ )
तातो 'अण्णस्स' इति पाठ: । 'पदेसदा संखेज्जा' इति पाठ: । 'असंखेज्जा' इति पाठः ।
Jain Education International
तातो 'संखेज्जा' आ-प्रतौ 'पदेसदृदाए संखेज्जा' ताप्रती ताप्रतौ 'कायजोगिऔरालियमिस्स' इति पाठ: । ॐ अ-ताप्रत्योः
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org.