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________________ ५, ४, ३१. ) कम्माणुओगद्दारे पओअकम्मादीणं अंतरपरूवणा ( १५७ गंतूण अस्सकण्णकरणकारयस्स पढमसमए जेणिज्जिण्णा ओरालियसरीरपरमाणू तेसि बिदियसमए आधाकम्मस्स आदी होदि । तदो तदियसमयप्पहुडि अकम्मभावेण गदाणं परमाणूणमंतरं होदूण गच्छदि जाव पुवकोडिम्मि अजोगिमेत्तद्धा सेसा ति। तदो सजोगिचरिमसमए तेसु चेव णोकम्मक्खंधेसु बंधमागदेसु आधाकम्मस्स लद्धमंतरं होदि। एवं गम्भादिअटुवस्सेहि छअंतोमुत्तब्भहिएहि ऊणिया पुवकोडी आधाकम्मस्त उक्कस्संतरं होदि । कसायाणवादेण चदुण्णं कसायाणं मणजोगिभंगो । अकसाईणमवगदवेदभंगो। वरि खीणकसायपढमसमए जे णिज्जिण्णा ओरालियपरमाणू तेसि बिदियसमए आधाकम्मस्स आदी कायस्वा । एवं केवलणाण-केवलदसणाणं पि वत्तव्वं । णवरि सजोगिपढमसमए णिज्जिण्णाणमोरालियपरमाणूणं बिदियसमए आधाकम्मस्स आदी काया। णाणाणवादेण मदि-सुदअण्णाणीणं तिरिक्खोघभंगो। णवरि किरियाकम्म पत्थि। एवमभवसिद्धिय-मिच्छाइटिअसण्णीणं पि वत्तव्वं। एवं विभंगणाणीणं पि। गवरि आधाकम्मस्स एगजीवं पडुच्च जहण्णण एगसमओ। उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं तिसमऊणं। तंजहाएक्को तिरिक्खो वा मणुस्सो वा उवसमसम्माइट्ठी उसमसम्मत्तद्धा छआवलियाओ अस्थि त्ति आसाणं विभंगणाणं च समयं पडिवण्णो । तत्थ विभंगणाणुप्पण्णपढमसमए जे सख्यात भाग जानेपर अश्वकर्ण करणका कर्ता होकर उसके प्रथम समयमें जो औदारिकशरीरके निर्जीर्ण हुए उनके दूसरे समयमें अधःकर्मकी आदि होती है। अनन्तर तीसरे समयसे लेकर अकर्मभावको प्राप्त हुए उन परमाणुओंका अन्तरकाल होता है जो पूर्वकोटि में अयोगीमात्र काल शेष रहने तक रहता है । अनन्तर सयोगीके अन्तिम उन्हीं समयमें नोकर्मस्कन्धोंके बन्धको प्राप्त होनेपर अधःकर्मका अन्तरकाल प्राप्त होता है। इस प्रकार गर्भसे लेकर आठ वर्ष और छह अन्तर्मुहर्त कम एक पूर्वकोटि अधःकर्मका उत्कृष्ट अन्तरकाल होता है । कषायमार्गणाके अनुवादसे चारों कषायोंका कथन मनोयोगियोंके समान है। अकषायवालोंका कथन अपगतवेदवालोंके समान है । इतनी विशेषता है कि क्षीणकषायके प्रथम समयम जो औदारिकशरीरके नोकर्मपरमाणु निर्जीर्ण हुए उनके दूसरे समयमें अधःकर्मकी आदि करना चाहिये । इसी प्रकार केवलज्ञान और केवलदर्शनवालोंके भी कहना चाहिये । इतनी विशेषता है कि सयोगीके प्रथम समयमें निर्जीर्ण हुए औदारिकशरीरके परमाणुओंके दूसरे समय में अध:कर्मकी आदि करना चाहिये । ज्ञानमार्गणाके अनुवादसे मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवोंका कथन सामान्य तिर्यंचोंके समान है । इतनी विशेषता है कि इनके क्रियाकर्म नहीं होता। इसी प्रकार अभव्यसिद्ध, मिथ्यादृष्टि और असंज्ञियोंके भी कहना चाहिये । इसी प्रकार विभंगज्ञानियोंके भी जानना चाहिये इतनी विशेषता है कि अध:कर्मका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल तीन समय कम अन्तर्मुहूर्त है । यथा-एक तिर्यंच या मनुष्य उपशमसम्यग्दृष्टि जीव उपशमसम्यक्त्वके कालमें छह आवलि काल शेष रहनेपर सासादन और विभंगज्ञानको एक * का-ताप्रत्योः ‘पि ' इत्येतत्पदं नास्ति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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