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________________ १९८) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड ( ५, ५, ३. एदेसि सोलसणं पि अणयोगद्दाराणमुत्थाणत्थपरूवणा* जाणिदूण कायन्वा । पयडिणिक्खेवे ति ॥ ३॥ ___ तत्थ जो सो पडिणिक्खेवो तस्स अत्थपरूवणं कस्सामो। को णिक्खेवो गाम? संशय विपर्ययानध्यवसायेभ्योऽपसार्य निश्चये क्षिपतीति निक्षेपः बाह्यार्थविकल्पप्ररूपको वा। चउन्विहो पयडिणिक्खेवो- णामपयडी ट्ठवणपयडी वव्वपयडी भावपयडी चेदि ॥ ४ ॥ एवं पयडिणिक्खेवो चउविहो होदि। ण च णिक्खेवो चउविहो चेव होदि त्ति णियमो अत्थि ति, चउविहवयणस्स देसामासियस्स गहणादो । एत्थ ताव णयविभासणदाए विणा णिक्खेवो ण णवदि ति कट्ट ताव णयविहासणं कहामो ति उत्तरसुत्तमागदं पयडिणयविभासणवाए को गओ काओ पयडीओ इच्छदि? ॥५॥ एदं पुच्छासुत्तं सुगमं ।। णेगम-ववहार-संगहा सव्वओ ॥ ६ ॥ इन सोलह ही अनुयोगद्वारोंके उत्थानकी अर्थप्ररूपणा जानकर करनी चाहिये । प्रकृति निक्षेपका अधिकार है॥ ३ ॥ उनमें जो प्रकृतिनिक्षेप अनुयोगद्वार है उसके अर्थका कथन करते हैं । शंका-निक्षेप किसे कहते है ? समाधान- संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय रूप विकल्पसे हटाकर जो निश्चयमें स्थापित करता है उसे निक्षेप कहते हैं । अथवा बाह्य अर्थके सम्बन्धमें जितने विकल्प होते है उनका जो कथन करता है उसे निक्षेप कहते हैं । प्रकृतिनिक्षेप चार प्रकारका है- नामप्रकृति, स्थापनाप्रकृति, द्रव्यप्रकृति और भावप्रकृति ॥ ४॥ इस प्रकार प्रकृतिनिक्षेप चार प्रकारका होता है । निक्षेप चार प्रकारका ही होता है, ऐसा कोई एकान्त नियम नहीं है, क्योंकि 'चार प्रकारका है ' यह वचन देशामर्शक है और इसी रूपसे यहां इसका ग्रहण किया गया है। यहां नयविभाषणताके विना निक्षेपका ज्ञान नहीं हो सकता, ऐसा समझकर पहले नयविभाषणता अधिकारका कथन करते हैं। इसके लिये आगेका सूत्र आया हैप्रकृतिनयविभाषणताको अपेक्षा कौन नय किन प्रकृतियोंको स्वीकार करताहै ? ।५। यह पृच्छासूत्र सुगम है। नेगम, व्यवहार और संग्रह नय सब प्रकृतियोंको स्वीकार करते हैं ॥ ६ ॥ * अ-आप्रत्यो ' -मुद्धागत्थपरूवणा', का-ताप्रत्योः ' -मद्धाणत्थपरूषणा ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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