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________________ - १९४ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड ( ५, ४, ३१. • अणंतगणा। समोदाणकम्मपदेसटुदा संखेज्जगुणा। एवं संजदेसु णवरि पओअकम्मदवट्ट.. दाए उवरि समोदाणकम्म-तवोकम्मदव्वदुदाओ विसेसाहियाओ। । सामाइय- छेदोवढावणसुद्धिसंजदेसु सव्वत्थोवा किरियाकम्मदव्वदा । पओअ कम्म-समोदाणकम्म तवोकम्मदवढदाओ विसेसाहियाओ । किरियाकम्मपदेसट्टदा ' असंखेज्जखुणा। पओअकम्म-तवोकम्म-पदेसटुदाओ दो वि सरिसाओ विसेसाहियाओ । आधाकम्मदव्वट्टदा अणंतगुणा । तस्सेव पदेसट्टदा अगंतगुणा। समोदाणकम्मपदेसट्टदा अणंतगुणा । चक्खुदंसणीणं मणजोगिभंगो। एवं सण्णीणं पि वत्तव्वं । लेस्साणुवादेण तेउ-पम्मलेस्सिएसु सम्वत्थोवा तवोकम्मदवटदा। किरियाकम्मदव्वट्ठदा असंखेगुणा । पओअकम्म-समोदाणकम्मदव्वट्ठदाओ असंखेज्जगुणाओ । तवोकम्मपदेसटुवा असंखज्जगुणा । किरियाकम्मपदेसटुदा असंखेज्जगुणा । पओअ-- कम्मपदेसट्टदा असंखेज्जगुणा । आधा कम्मदव्वदा अणंतगुणा । तस्सेव पदेसद्वदा अणंतगुणा । समोदाणकम्मपदेसट्टदा अणंतगुणा। अलेस्सिएसु सव्वत्थोवाओ तवोकम्म. समोदाणकम्मदव्वदाओ। तवोकम्मपदेसट्टदा असंखेज्जगुणा । आधाकम्मदव्वदृदा अणंतगुणा । तस्सेव पदेसट्टदा अणंतगुणा । समोदाणकम्मपदेसटुदा अणंतगुणा । कर्मकी प्रदेशार्थता सख्यातगुणी है । इसी प्रकार संयतोंके भी जानना चाहिये। इतनी विशेषता है कि इनके प्रयोगकर्मकी द्रव्यार्थतासे समवधानकर्म और तपःकर्मकी द्रव्यार्थता विशेष अधिक होती है। सामायिक और छेदोपस्थापनाशुद्धिसंयत जीवोंके क्रियाकर्म की द्रव्यार्थता सबसे स्तोक है। इससे प्रयोगकर्म, समवधानकर्म और तपःकर्मकी द्रव्यार्थता विशेष अधिक है। इससे क्रियाकर्मकी प्रदेशार्थता असंख्यातगुणी है। इससे प्रयोगकर्म और तपःकर्म इन दोनोंकी प्रदेशार्थता समान होकर विशेष अधिक है। इससे अधःकर्मकी द्रव्यार्थता अनन्तगुणी है । इससे उसीकी प्रदेशार्थता अनन्तगुणी है। इससे समवधानकर्मकी प्रदेशार्थता अनन्तगुणी है। चक्षुदर्शनवालोंका कथन मनो. योगवालोंके समान है। इसी प्रकार संज्ञी जीवोंके भी कहना चाहिये। लेश्यामार्गणाके अनुवादसे पीत और पद्मलेश्यावालों में तपःकर्मकी द्रव्यार्थता सबसे स्तोक है। इससे क्रियाककर्मकी द्रव्यार्थता असंख्यातगुणी है । इससे प्रयोगकर्म और समवधानकर्मकी द्रव्यार्थता असंख्यातगुणी है। इससे तपःकर्मकी प्रदेशार्थता असंख्यातगुणी है । इससे क्रियाकर्म की प्रदेशार्थता असंख्यातगुणी है । इससे प्रयोगकर्मकी प्रदेशार्थता असंख्यातगुणी है । इससे अधःकर्मकी द्रव्यार्थता अनन्तगुणी है । इससे उसीकी प्रदेशार्थता अनन्तगुणी है। इससे समवधानकर्मकी प्रदेशार्थता अनन्तगुणी है। लेश्यारहित जीवोंके तपःकर्म और समवधानकर्मकी द्रव्यार्थता सबसे स्तोक है। इससे तपःकर्मकी प्रदेशार्थता असंख्यातगुणी है । इससे अधःकर्मकी द्रव्यार्थता अनन्तगुणी है। इससे उसीकी प्रदेशार्थता अनन्तगुणी है। इससेसमवधानकर्म की प्रदेशार्थता अनन्तगुणी है । ४ अ-आ-ताप्रतिष ' पओअकम्मप०-आधा' , काप्रती ' पओअकम्मपदेसट्टदा आधा-' इति पाठः ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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