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________________ ५. ४ , ३१ ) कम्माणुओगद्दारे पओअकम्मादीणं अंतरपरूवणा ( १६७ मंतरं। एवं तिसमऊणबेअंतोमहत्तभहियाणि देसूणअड्राइज्जसागरोवमाणि आधा-- कम्मरस उक्कस्संतरं होदि । एवं किरियाकम्मस्स वि वत्तव्यं । णवरि पंचहि अंतोमुहुत्तेहि ऊणाणि अड्डाइज्जसागरोवमाणि उक्कस्संतरं।। पम्माए लेस्साए एवं चेव वत्तव्वं । णवरि तिसमऊणबेअंतोमुहुत्तभहियदेसूणद्धसागरोवमसहिदाणि अट्ठारस सागरोवमाणि आधाकम्मस्स उक्कस्संतरं । एवं किरियाकम्मस्स वि वत्तव्वं । णवरि पंचहि अंतोमहुत्तेहि ऊणाणि (देसूण-) अद्धसागरोवमसहिदअट्ठारससागरोवमाणि उक्कस्संतरं। सुक्कलेस्साए पीअकम्म-समोदाणकम्म-इरियावथकम्म-तवोकम्माणं णाणेगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं । आधाकम्मस्स अंतरं केवचिरं कालादो होदि ? णाणाजीवं पडुच्च पत्थि अंतरं । एगजीवं पडुच्च जहण्णण एगसमओ। उक्कस्सेण तेत्तीससागरोवमाणि बहि अंतोमहत्तेहि सादिरेयाणि । तं जहा- एक्को विसुज्झमाणो पमत्तसंजदो पम्मलेस्साए अच्छिदो । तदो उवसमसेडिपाओग्गविसोहि पूरेमाणो सुक्कलेस्सिओ जादो । तदो सुक्कलेस्सियपढमसमए जे णिज्जिण्णा ओरालियणोकम्मक्खंधा तेसि बिदियसमए आधाकम्मस्स आदी होदि । तदियसमयप्पहडि अंतरं होदि । पुणो पमत्तापमत्तपरावत्तसहस्सं कादूण अपुवो अणियट्टी सुहुमो उवसंतकसाओ पुणो सुहुमो अणियट्टी अपुवो अप्पमत्तो होदूण पमत्तसंजट्ठाणे सवुक्कस्सलेस्सकालमच्छिदूण मदो तेतीससागरोवमट्टिदियो देवो जादो । तत्तो चुदो अधःकर्मका उत्कृष्ट अन्तरकाल तीन समय कम दो अन्तर्मुहर्त अधिक कुछ कम अढाई सागर होता है । इसी प्रकार क्रियाकर्मका भी उत्कृष्ट अन्तरकाल कहना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इसका उत्कृष्ट अन्तरकाल पांच अन्तर्मुहूर्त कम अढाई सागर है ।। पद्मलेश्यामें भी इसी प्रकार कहना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इसके अधःकर्मका उत्कृष्ट अन्तरकाल तीन समय कम दो अन्तर्मुहुर्त अधिक कुछ कम साढे अठारह सागर है। इसी प्रकार क्रियाकर्मका भी उत्कृष्ट अन्तरकाल कहना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इसके क्रियाकमका उत्कृष्ट अन्तरकाल पांच अन्तर्महतं कुछ कम साढे अठारह सागर है । शुक्ललेश्यामे प्रयोगकर्म, समवधानकर्म, ईर्यापथकर्म और तपःकर्म नाना जीवों और एक जीवकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है । अध:कर्मका अन्तरकाल कितना है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल दो अन्तर्मुहर्त अधिक तेतीस सागर है। यथा-विशुद्धिको प्राप्त होता हुआ एक प्रमत्तसंयत जीव पद्मलेश्याके साथ रहा । अनन्तर उपशमश्रेणिके योग्य विशुद्धिको बढ़ाता हुआ शुक्ललेश्यावाला हो गया । अनन्तर शुक्ललेश्यावाला होनेके प्रथम समयमें जो औदारिकशरीर स्कन्ध निर्जीर्ण हुए उनकी अपेक्षा दूसरे समय में अधःकर्मकी आदि होती है और तीसरे समयसे अन्तर होता है ।पुनः प्रमत्त और अप्रमत्त गुणस्थानके हजारों परावर्तन करके अपूर्वकरण अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसाम्पराय, उपशान्तमोह, पुन सुक्ष्मसाम्पराय, अनिवृत्तिकरण, अपूर्वकरण और अप्रमत्तसंयत होकर प्रमत्तसंयत गुणस्थानमें सर्वोत्कृष्ट उक्त लेश्याके काल तक रहकर मरा और तेतीस सागरकी स्थितिवाला देव हो गया । पुनः वहांसे च्युत होकर मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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