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________________ १६६ ) छक्खंडागमे वग्गणा - खंड ( ५, ४, ३१. लेस्साए वत्तव्वं । णवरि तिसमऊणबेअंतोमुहुत्तम्भहियाणि सत्तारस सागरोवमाणि आधाकम्मस्स उक्कस्संतरं । पंचहि अंतोमुहुत्तेहि ऊणागि सत्तारस सागरोवमाणि किरियाकम्मस्स उक्कस्संतरं । एवं काउए वि लेस्साए । णवरि तिसमऊणबेअंतोमुहुत्तभहियाणि सत्त सागरोवमाणि आधाकम्मस्स उक्कस्संतरं । पंचहि अंतोमुहुत्तेहि ऊणाणि सत्त सागरोवमाणि किरियाकम्मस्स उक्कस्संतरं । तेउलेस्साए पओअकम्म-समोदाणकम्म तवोकम्माणं अंतरं केवचिरं कालादो होदि ? णाणेगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं । आधाकम्मस्स अंतरं केवचिरं कालादो होदि ? णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं । एगजीगं पडुच्च जहणेण एगसमओ । उक्कस्सेण बेअंतोमहुत्तम्भ हिय देसूणअड्डा इज्जसागरोवमाणि । तं जहा- एक्को तिरिक्खो वा मणुस्सो वा सम्माइट्ठी सोधम्मीसाने अंतोमुहुत्तूणअड्डाइज्जसागरोवमाणि देवाअं बंधिण पुणो भुंजमाणाउए सव्वदीहअंतोमृहुत्तावसेसे तेउलेस्सिओ जादो । तिस्से तेउलेस्साए परिणदपढमसमए जे णिज्जिण्णा ओरालियसरी रक्खधा तेसि बिदियसमए आधाकम्मस्स आदी होदि । तदियसमयप्पहुडि अंतरं होदि । एत्थेव अंतोमहुत्त मंतरिण पुणो सोधम्मीसाणे उप्पज्जिय कालं काढूण तेउलेस्साए सह मस्सो जादो । तत्थ वि सव्बुक्कस्समंतोमुहुत्तं तेउलेस्साए अच्छिवस्स तेउलेस्सढाए चरिमसमए पुव्वणिज्जिण्णोरालियक्खंधेसु बंधमागदेसु आधाकम्मस्स लद्ध होता है । इस प्रकार नीललेश्या में भी कहना चाहिये । इतनी विशेषता है कि अधः कर्मका उत्कृष्ट अन्तरकाल तीन समय कम दो अन्तर्मुहूर्त अधिक सत्रह सागर है । और क्रियाकर्मका उत्कृष्ट अन्तरकाल पांच अन्तर्मुहूर्त कम सत्रह सागर है इसी प्रकार कापोतलेश्या में भी कहना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इसमें अधःकर्मका उत्कृष्ट अन्तरकाल तीन समय कम अन्तर्मुहूर्त अधिक सात सागर है । तथा क्रियाकर्मका उत्कृष्ट अन्तरकाल पांच अन्तर्मुहूर्त कम सात सागर है । - पीतलेश्या में प्रयोगकर्म, समवधानकर्म और तपःकर्मका अन्तरकाल कितना है? नाना जीवों और एक जीवकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है । अधःकर्मका अन्तरकाल कितना है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल दो अन्तर्मुहूर्त अधिक कुछ कम अढ़ाई सागर है । यथा - एक तिर्यंच या मनुष्य सम्यग्दृष्टि जीव सौधर्म और ऐशान स्वर्ग सम्बन्धी अन्तर्मुहूर्त कम अढ़ाई सागरप्रमा णदेवायुकाबन्ध करके पुनः भुज्यमान आयुमें सबसे दीर्घ अन्तर्मुहूर्त काल शेष रहनेपर पीतलेश्यावाला होगया । उस पीतलेश्या के परिणत होनेके प्रथम समयमें जो औदारिकशरीर स्कन्ध निर्जीर्ण हुएउनकी अपेक्षा दूसरे समय में अधःकर्मकी आदि होती है और तीसरे समय से अन्तर होता है । इस प्रकार यहां ही अन्तर्मुहूर्त काल तक अन्तर करके पुनः सौधर्म व ऐशान कल्प में उत्पन्न होकर मरा और पीतलेश्या के साथ मनुष्य हुआ । यहां भी सबसे उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त काल तक पीतलेश्या के साथ रहनेवाले उस जीवके पीतलेश्या के कालके अन्तिम समय में पूर्व निर्जीर्ण औदारिकशरीर स्कन्धों के बन्धको प्राप्त होनेपर अधः कर्म का अन्तरकाल उपलब्ध होता है । इस प्रकार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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