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________________ ५६ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड ( ५, ४, २६. अद्धाहारणियमो अवमोदरियतवो। जो जस्स पयडिआहारो तत्तो ऊणाहारविसयअभिग्गहो अवमोदरियमिदि भणिदं होदि । तत्थ ताव पयडिपुरिसित्थोणमाहार परूवणाए गाहा बत्तीस किर कवला आहारो कुच्छिपूरणो भणिदो। पुरिसस्स महिलियाए अट्ठावीस हवे कवला ॥७।। कि कवलपमाणं? सालितंदुलसहस्से डिदे जं* करपमाणं तं सव्वमेगो कवलो होदि । एसो पयडिपुरिसस्स कवलो परूविदो । एदेहि बत्तीसकवलेहि पयडिपुरिसस्स आहारो होदि, अट्ठावीसकवलेहि महिलियाए। इमं कवलमेदमाहारं च मोत्तूण जो जस्स पयडिकवलो पयडिआहारो सो च घेत्तत्वो। ण च सव्वेसि कवलो आहारो वा अवद्विदो अत्थि, एगकुडवतंडुलकूर जमाणपुरिसाणं एगगलत्थकूराहारपुरिसाणंच उवलंभादो। एवं कवलस्स वि अणवट्ठाणमुवलब्भदे । तम्हा अप्पप्पणो पयडिआहारादो ऊणाहारग्गहणणियमो ओमोदरिय तवो होदि त्ति सिद्धं। एसो तवो केहि कायन्वो? आधे आहारका नियम करना अवमौदर्य तप है। जो जिसका प्राकृतिक आहार है उससे न्यून आहार विषयक अभिग्रह (प्रतिज्ञा) करना अवमौदर्य तप है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है। उसमें प्रकृतिस्थ पुरुष और स्त्रियोंके आहारका कथन करते समय यह गाथा आती है उदरपूर्ति के निमित्त पुरुषका बत्तीस ग्रास और महिलाका अट्ठाईस ग्रास आहार कहा है ।७।। शंका- एक ग्रासका क्या प्रमाण है? समाधान- शाली धान्यके एक हजार चावलोंका जो भात बनता है वह सब एक ग्रास होता है। यह प्रकृतिस्थ पुरुषका ग्रास कहा है। ऐसे बत्तीस ग्रासों द्वारा प्रकृतिस्थ पुरुषका आहार होता है और अट्ठाईस ग्रासों द्वारा महिलाका आहार होता है। प्रकृतमें इस ग्रास और इस आहारका ग्रहण न कर जो जिसका प्राकृतिक ग्रास और प्राकृतिक आहार है वह लेना चाहिये। कारण कि सबका ग्रास और आहार अवस्थित एक समान नहीं होता, क्योंकि, कितने ही पुरुष एक कुडव प्रमाण चावलोंके भातका और कितने ही पुरुष एक गलस्थ प्रमाण चावलोंके भातका आहार करते हुए पाये जाते हैं। इसी प्रकार ग्रास भी अनवस्थित पाया जाता है। इसलिये अपना अपना जो प्राकृतिक आहार है उससे न्यून आहारके ग्रहण करनेका नियम अवमौदर्य तप होता है, यह बात सिद्ध होती है। शंका- यह तप किन्हें करना चाहिये? समाधान- जो पित्तके प्रकोपवश उपवास करने में असमर्थ हैं, जिन्हें आधे आहारकी * बत्तीसा किर कवला पुरिसस्स दु होदि पयडि आहारो। एगकवलादीहिं तत्तो ऊणियगहणं उमोदरियं ।। मूला. ( पंचा. ) १५३. अत्मीयप्रकृत्यौदनस्य चतुर्थभागेन अर्धन ग्रासेन बोनाहारनियमोऽवमोदर्यम् । चारित्रसार पृ ५९. *ताप्रतौ 'होदि' इति पाठः। Oभग. २११. * आप्रती 'सालितंदुलसहस्से कित्थे जं', ताप्रती 'सलिलतंदुलसहस्से जं' इति पाठः। ताप्रतौ 'चेव' इति पाठः। -ताप्रती 'कराहारपरिमाणं च' इति पाठः। आ-ताप्रत्यो: 'तहा' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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