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________________ ५, ४, २६.) कम्माणुओगद्दारे तवोकम्मपरूवणा (५७ पित्तप्पकोवेण उववासअक्खमेहि अद्धाहारेण उववासादो अहियपरिस्समेहि सगतवोमाहप्पेण भव्वजोवुवसमणवावदेहि वा सगकुक्खिकिमिउप्पत्तिणिरोहकंखुएहिं वा अदिमत्ताहारभोयणेण वाहिवेयणाणिमित्तेण सज्झायभंगभीरुएहि वा । भोयण-भायण-घर-वाड-दादारा वुत्ती णाम। तिस्से वुत्तीए परिसंखाणं गहणं वत्तिपरिसंखाणं णाम। एदम्मि वुत्तिपरिसंखाणे पडिबद्धो जो अवग्गहो सो वुत्तिपरिसंखाणं णाम तवो त्ति भगिदं होदि। एसा केहि कायव्वा ? सगतावोविसेसेण भव्वजणमुवसमेदूण सगरस -रुहिर-मांससोसणदुवारेण इंदियसंजममिच्छंतेहि साहूहि कायव्वा भायण-भोयणादिविसयरागादिपरिहरणचित्तेहि वा*। खीर-गुड-सप्पि-लवण-दधिआदओसरीरिदियरागादिवुड्ढिणिमित्ता रसा णाम। तेसि परिच्चाओ रसपरिच्चाओ। किमटमेसो कीरदे? पाणिदियसंजमठें। कुदो? अपेक्षा उपवास करने में अधिक थकान आती है, जो अपने तपके माहात्म्यसे भव्य जीवोंको उपशान्त करने में लगे हैं, जो अपने उदरमें कृमिकी उत्पत्तिका निरोध करना चाहते हैं, और जो व्याधिजन्य वेदनाके निमित्तभूत अतिमात्रामें भोजन कर लेनेसे स्वाध्यायके भंग होने का भय करते हैं; उन्हें यह अवमोदर्य तप करना चाहिये । ___ भोजन, भाजन, घर, वाट (मुहल्ला) और दाता, इनकी वृत्ति संज्ञा है। उस वृत्तिका परिसंख्यान अर्थात् ग्रहण करना वृत्तिपरिसंख्यान है । इस वृत्तिपरिसंख्यानमें प्रतिबद्ध जो अवग्रह अर्थात् परिमाण-नियंत्रण होता है वह वृत्तिपरिसंख्यान नामका तप है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है। शंका- यह किनको करना चाहिये ? समाधान- जो अपने तपविशेषके द्वारा भव्यजनोंको शान्त करके अपने रस, रुधिर और मांसके शोषण द्वारा इन्द्रियसंयमकी इच्छा करते हैं उन साधुओंको करना चाहिये। अथवा जो भाजन और भोजनादि विषयक रागादिको दूर करना चाहते हैं उन्हें करना चाहिये। शरीर और इन्द्रियोंमें रागादि वृद्धि के निमित्त भूत दूध, गुड, घी, नमक और दही आदि रस कहलाते हैं । इनका त्याग करना रसपरित्याग तप है। शंका- यह रस-परित्याग तप किसलिये किया जाता है ? । समाधान-प्राणिसंयम और इन्द्रियसंयमकी प्राप्ति के लिये किया जाता है, क्योंकि, जिहवा अवमोदर्यमिति च किमर्थम् ? निद्राजयार्थं दोषप्रशमनार्थमतिमात्राहारजातविहितस्वाध्यायभयाथमुपवासश्रमसमुद्भुतवात-पित्तप्रकोपपरिहीयमानसंयमसंरक्षणार्थ च । आचारसार. पृ. ५९. 8 गोयरपमाणदायगभायणणाणाविधाण जं गहणं । सह एसणस्स गहणं विविधस्स य वृत्तिपरिसंखा ॥ मला( पचाचा ) १५७. * ताप्रतौ 'सगस्स-' इति पाठः। -* स्वकीयतपोविशेषेण रस-रुधिर-मांसशोषणद्वारेणेन्द्रियसंयम परिपालयतो भिक्षार्थिनो मनेरेकागारसप्तवेश्मैकरथ्यार्धग्राम-दातजनवेष-गह-भाजन-भोजनादिविषयसंकल्पो वत्तिपरिसंख्यानमाशानिबत्त्यर्थमवगन्तव्यम् । चारित्रसार. प. ५९. खीर-दहि-सप्पि-तेल. गड-लवणाणं च जं परिच्चयणं । तित्त-कड-कसायंबिलमधुर रसाणं च जं चयण ॥ मूला. (पंचा.) १५५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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