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________________ ५, ४ , ३१ ) कम्माणुओगद्दारे पओअकम्मादीणं कालपरूवणा ( १०९ किरियाकम्मं केवचिरं कालादो होदि ? गाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा । एगजीवं पडुच्च जहण्णण अंतोमहत्तं । कुदो ? मिच्छाइटि-सम्मामिच्छाइट्ठीहितो सम्मत्तं पडिवज्जिय सवजहण्णमंतोमुत्तकालमच्छिय मिच्छतं सम्मामिच्छत्तं वा पडिवण्णस्स जहण्णकालसंभववलंभावो । कुदो ? तिरिवखमिच्छाइट्ठीहितो वा मणुसमिच्छाइट्ठीहितो वा पुवकोडिऊणचोद्दससागरोवमाउछिदिलांतव-काविट्ठदेवेसुववज्जिय तत्थ पढमसागरोवमे अंतोमहत्तावसेसे तिण्णि वि कारणाणि कादण पढमसम्मत्तं पडिवज्जिय सव्वक्कस्समुवसमसम्मत्तकालमच्छिय बिदियसागरोवमस्स आदिसमए वेदगसम्मत्तं घेत्तण देसूणतेरससागरोवमाणि सम्मत्तमणुपालेदूण मणुसेसु उवज्जिय संजमं घेत्तण पुणो आगामिमणुस्साउएणणणबावीससागरोवमट्टिदिएसु आरणच्चुददेवेसु उवज्जिय पुणो पुवकोडाउअं बंधिय मणुस्सेसुववज्जिय तत्थ संजमं पडिवज्जिय पुणो आगामिमणुस्साउएणूणएक्कती ससागरोवमाउटिदिएसु उरिमगेवज्जदेवेसु उववण्णो । पुणो पुवकोडाउएसु मणुस्सेसु उवज्जिय तत्थ संजममणुपालेमाणो अंतोमुत्तावसेसे आउए खइय सम्माइट्ठी होदूण तेत्तीससागरोवमाउटिदिएसु सम्वसिद्धिविमाणवासियदेवेसु उववज्जिय पुणो पुवकोडाउएसुमणुस्से सु उववण्णो सवजहण्णंतोमहुत्तेण सिज्झिदव्वमिदि अपुव्वखवगो होते हैं उन जीवोंके उक्त दोनों कर्मोंका यह उत्कृष्ट काल उपलब्ध होता है। क्रियाकर्मका कितना काल है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल अंतर्मुहर्त है,क्योंकि, जो मिथ्यादृष्टि या सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव सम्यक्त्वको प्राप्त होकर और सबसे जघन्य अतमहत काल तक वहां रहकर पुनः मिथ्यात्व या सम्याग्मथ्यात्वको प्राप्त होता है उसक इस जघन्य कालकी संभावना देखी जाती है। उत्कृष्ट काल सादिक छयासठ सागर है, क्योंकि कोई एक तिर्यंच मिथ्यादृष्टि या मनुष्य मिथ्यादृष्टि जीव एक पूर्वकोटि कम चौदह सागरोपम आयुवाले लांतव-कापिष्ठ देवोंमें उत्पन्न हआ। फिर वहां प्रथम सागरोपम में अंतर्महर्त काल शेष रहनेपर तीनों ही करणोंको करके प्रथम सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ। फिर उपशमसम्यक्त्वके सर्वोत्कृष्ट अन्तर्मुहर्त काल तक उसके साथ रहकर दूसरे सागरोपमके प्रथम समयमें वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ। फिर कुछ कम तेरह सागरोपम काल तक सम्यक्त्वका पालन करते हुए मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ आर वहा सयमका ग्रहण कर पुनः आगामी मनुष्यायुके प्रमाणसे कम बाईस सागरोपमकी आयुवाले आरण-अच्युत देवोंमें उत्पन्न हुआ। फिर पूर्वकोटिप्रमाण आयको बांधकर मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ और वहां संयमको प्राप्त होकर पुनः आगामी मनुष्यायुके प्रमाणसे न्यून इकतीस सागरोपम आयुवाले उपरिम ग्रेवेयकके देवोंमें उत्पन्न हुआ। फिर पूर्वकोटिप्रमाण आयुवाले मनुष्यों में उत्पन्न हुआ और वहां संयमका पालन करते हुए आयुमें अन्तर्मुहूर्त काल शेष रहनेपर क्षायिकसम्यग्दृष्टि हुआ। फिर मरकर तेतीस सागरोपम आयुवाले सर्वार्थसिद्धि विमानवासी देवोंमें उत्पन्न हुआ। फिर पूर्वकोटिप्रमाण आयुवाले मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ और वहां जब सबसे जघन्य अंतर्मुहूर्त काल द्वारा सिद्ध हुआ तब अपूर्वकरण क्षपक हुआ। यहां इसका क्रियाकर्म नष्ट हो जाता है । अ-आ-काप्रतिषु 'लंतय ' इति पाठः। ४ ताप्रती । सागरोवमट्टिदिएसु' इति पाठः 1 * अ-आ-ताप्रतिषु ‘खविय' इति पाठ: 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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