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________________ ३२८ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड (५, ५, ६०. उक्कस्सदव्वं तेजइयसरीरं । उक्कस्सखेत्तमसंखेज्जाणि जोयणाणि । उक्कस्सकालो असंखेज्जाणि वस्साणि । मणस्सेसु उक्कस्सदव्वमेगो परमाण । उक्कस्सखेत्त-काला असंखेज्जा लोगा। देसोहिउक्कस्सखेत्तं लोगमेत्तं, कालो समऊणपल्लं। एवं देसोहिणाणं पडिवादी होदि, तम्हि चेव भवे पडिवण्णमिच्छत्तजीवेसु विणासुवलंभादो। तेण परमप्पडिवादी' तत्तो उवरिमाणि परमोहि-सव्वोहिणाणाणि अप्पडिवादीणि अविणस्सराणि, केवलणाणंतियाणि होति त्ति भणिदं होदि । जावदियाणि ओहिणाणाणि परूविदाणि तत्तियाओ चेव ओहिणाणावरणीयस्स पयडीओ होति । विहंगणाणस्स जहण्ण खेत्तं तिरिवख-मणुस्सेसु अंगुलस्त असंखेज्जदिभागो उक्कस्सखेतं सत्तट्टदीव-समुद्दा। एवमोहिणाणावरणीयस्स कम्मस्स परूवणा कदा। मणपज्जवणाणावरणीयस्स कम्मस्स केवडियाओ पयडीओ ? ॥ ६०॥ सुगममेदं पुच्छासुत्तं । मणपज्जयणाणावरणीयस्स कम्मस्स दुवे पयडीओ उजुमदिमणपज्जवणाणावरणीयं चेव विउलमदिमणपज्जयणाणावरणीयं चेव ॥ परकीयमनोगतोऽर्थो मनः, परि समन्तात् अयः विशेषः पर्ययः मनसः पर्ययः मनः पर्ययः, मनःपर्ययस्स ज्ञानं मनःपर्ययज्ञानम् । तस्स आवरणीयं मणपज्जयणाणावरणीयं । उत्कृष्ट क्षेत्र असंख्यात योजन, और उत्कृष्ट काल असंख्यात वर्ष मात्र है। मनुष्योंमें उत्कृष्ट द्रव्य एक परमाणु तथा उत्कृष्ट क्षेत्र और काल असंख्यात लोक प्रमाण हैं । देशावधिज्ञानका उत्कृष्ट क्षेत्र लोक प्रमाण हैं और उत्कृष्ट काल एक समय कम पल्य प्रमाण है । यह देशावधिज्ञान प्रतिपाती होती है, क्योंकि, उसी भवमें जीवोंके मिथ्यात्वको प्राप्त हो जानेपर इसका विनाश देखा जाता है। उसके आगेके परमावधिज्ञान और सर्वावधिज्ञान अप्रतिपाती अर्थात् अविनश्वर है। अभिप्राय यह है कि वे केवलज्ञानके उत्पन्न होने तक रहते हैं । जितने अवधिज्ञान कहे गये हैं उतनी ही अवधिज्ञानावरणीय कर्मकी प्रकृतियाँ हैं। विभंगज्ञानका जघन्य क्षेत्र ति मनुष्योंमें अंगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण होता हैं। उसका उत्कृष्ट क्षेत्र सात-आठ द्वीप समुद्र प्रमाण होता हैं । इस प्रकार अवधिज्ञानावरणीयकी कर्मका कथन किया। मनःपर्ययज्ञानावरणीय कर्मकी कितनी प्रकृतियां हैं ? । ६० । यह पृच्छासूत्र सुगम है। मनःपर्ययज्ञानावरणीय कर्मकी दो प्रकृतियां हैं- ऋजुमतिमनःपर्ययज्ञानावरणीय और विपुलमतिमनःपर्ययज्ञानावरणीय । ६१ । परकीय मनोगत अर्थ मन कहलाता है । ' पर्यय' में परि शब्दका अर्थ सब ओर, ओर अय शब्दका अर्थ विशेष है मनका पर्यय मनःपर्यय, और मनःपर्ययका ज्ञान मनःपर्ययज्ञान; इस प्रकार यहां षष्ठी तत्परुष समास है। उसका जो आवरण करता है वह मनःपर्ययज्ञानावरणीय कर्म है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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