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________________ ५, ५, ६२. ) पयडिअणुओगद्दारे उजुमदिमणपज्जयणाणपरूवणा (३२९ तस्स दुवे पयडीओ उजमदि-विउलमदिमणपज्जयणाणावरणीयभेएण। एयर मणपज्जयणाणावरणीयं ण दुब्भावं, पडिवज्जदि, एयस्स दुब्भावविरोहादो। अह दुवे, ण तेसिमेयत्तं; दोण्णमेयत्तविरोहादो ? ण एस दोसो, उजु-विउलमदिविसेसणविरहिदणाणविवक्खाए जाणभेदाभावेण तदावरणस्त एयत्तुवलंभादो। उजु विउलमदिविसेसणेहि विसेसिदमणपज्जयणाणस्स एयत्ताभावेण तदावरणस्स वि दुब्भावुवलंभादो। परेसिं* मणम्मि अट्टिदत्थविसयस्स विउलमदिणाणस्स कधं मणपज्जयणाणववएसो? ण, अचितिदं चेवळं जाणदि ति णियमाभावादो। किंतु चितियर्माचतियमद्धचितियं च जाणदि । तेण तस्स मणपज्जयणाणववएसो ण विरुज्झदे । जं तं उजुमदिमणपज्जयणाणावरणीयं णाम कम्मं तं तिविहंउजुगं मणोगदं जाणदि उजुगं वचिगदं जाणदि, उजुगं कायगद जाणदि* ॥ ६२॥ जेण उज्जुगमणोगवट्ठविसयं उज्जुगवचिगवट्ठविसयं उज्जगकायगवट्टविसयं ति उसकी ऋजुमतिमनःपर्ययज्ञानावरणीय और विपुलमतिमनःपर्ययज्ञानावरणीयके भेदसे दो प्रकृतियां है । __ शंका-- एक मन:पर्ययज्ञानावरणीय कर्म दो प्रकारका नहीं हो सकता, क्योंकि एकको दो रूप मानने में विरोध आता है। और यदि वह दो प्रकारका है तो फिर वे एक नहीं हो सकते, क्योंकि, दोके एक मानने में विरोध आता है ? समाधान-- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि ऋजुमति और विपुलमति विशेषणसे रहित ज्ञानकी विवक्षा होनेपर ज्ञानके भेदोंका अभाव होनेसे तदावरण कर्म एक प्रकारका उपलब्ध होता है । तथा ऋजुमति और विपुलमति विशेषणोंके द्वारा विशेषताको प्राप्त हुए मन:पर्ययज्ञानके एकत्वका अभाव होनेसे तदावरण कर्म भी प्रकारका उपलब्ध होता है। शंका-- दूसरोंके मनमें नहीं स्थित हुए अर्थको विषय करनेवाले विपुलमतिज्ञानकी मनःपर्ययज्ञान संज्ञा कैसे है ? समाधान-- नहीं, क्योंकि अचिन्तित अर्थको ही वह जानता है, ऐसा कोई नियम नहीं हैं। किन्तु विपुलमतिज्ञान चिन्तित, अचिन्तित और अर्द्धचिन्तित अर्थको जानता है; इसलिए उसकी मनःपर्ययज्ञान संज्ञा होने में कोई विरोध नहीं आता। जो ऋजमतिमनःपर्ययज्ञानावरणीय कर्म है वह तीन प्रकारका है- ऋजुमनोगतको जानता है, ऋजुवचनगतको जानता है और ऋजुकायगतको जानता है ।६२। ____ यतः ऋजुमनोगत अर्थको विषय करता है, ऋजुवचनगत अर्थको विषय करता है और ४ प्रतिषु ' एवं ' इति पाठः। 4 प्रतिषु ' दुब्भाग ' इति पाठ: 1 * आ-काप्रत्यो ‘एदेसिं' इति पाठः। चितियमचितियं वा अद्धचितियमणेयभेयगयं 1 मणपज्जवं ति उच्चह जं जाणइ तं खु णरलोए 1 गो. जी ४३७. अ-आ-काप्रतिष 'उज्जगं , इति पाठ: 1 म. बं. १ पृ. २४. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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