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________________ १६४ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड (५, ४, ३१. तिरिक्खपज्जत्तएसु उववण्णो । छहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदो विस्संतो विसुद्धो अधापवत्तकरणं अपुवकरणं च कादूण सम्मत्तं संजमासंजमं च समयं पडिवण्णो । तत्थ संजदासंजदपढमसमए जे णिज्जिण्णा ओरालियखंधा तेसि बिदियसमए अधाकम्मस्स आदी होदि । तदियसमयप्पहुडि अंतरं होदि । तदो संजदासंजदचरिमसमए पुव्वणिज्जिण्णओरालियसरीरखंधेसु बंधमागदेसु लद्धमाधाकम्मस्स उक्कस्संमंतरं। एवं तिसमयाहिएहि तीहि अंतोमहत्तेहि ऊणिया पुवकोडी आधाकम्मस्स उक्कस्संमंतरं । असंजदाणं तिरिक्खोधो। दसणाणुवादेण चक्खुदंसणीणं तसपज्जत्तभंगो। णवरि इरियावथकम्मस्स गाणाजीवं पडच्च जहण्णण एगसमओ, उक्कस्सेण छम्मासा । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं । उक्कस्सेण चक्खुदंसगिट्टिदी देसूणा। एवमचक्खुदंसणीणं । णवरि सगट्टिदी भणिदव्वं । ओहिदसणीणमोहिणाणिभंगो। लेस्साणवादेण किण्णलेस्साए पओअकम्प्र-समोदाणकम्माणमंतरं केवचिरं कालादो होदि? गाणेगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं। आघाकम्मस्स अंतरं केवचिरं कालादो होदि? जाणाजीवं पडुच्च णस्थि अंतरं । एगजीनं पडुच्च जहण्णण एगसमओ । उक्कस्सेग तेत्तीसं सागरोवमाणि सादिरेयाणि । तं जहा- एक्को तिरिक्खो पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हुआ। विश्राम किया । विशुद्ध हुआ। फिर अधःप्रवृत्तकरण और अपूर्वकरणको करके लम्यक्त्व और संयमासंयमको एक साथ प्राप्त हुआ। वहां संतासंयत होनेके प्रथम समयमें जो औदारिक स्कन्ध निर्जीर्ण हुए उनकी अपेक्षा दूसरे समयमें अधःकर्मकी आदि होती है और तीसरे समयसे लेकर अन्तर होता है। अनन्तर सयतासंयतके अन्तिम समयसे पहले निर्जीर्ण हुए औदारिकशरीर स्कन्धोंके बन्धको प्राप्त होनेपर अधःकमका उत्कृष्ट अन्तरकाल उपलब्ध होता है । इस प्रकार तीन समय अधिक तीन अन्तर्मुहुर्त कम एक पूर्वकोटि अध:कर्मका उत्कृष्ट अन्तरकाल होता है । असंयतोंका कथन सामान्य तिर्यंचोंके समान है। दर्शनमार्गणाके अनुवादसे चक्षुदर्शनवालोंका कथन त्रस' पर्याप्तकोंके समान है। इतनी विशेषता है कि ईर्यापथकर्मका नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल छह महीना है । तथा एक जोवकी अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल अन्तर्महत है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम चक्षुदर्शनकी स्थितिप्रमाण है। इसी प्रकार अचक्षुदर्शनवालोंके कहना चाहिये । इतनी विशेषता है कि अपनी स्थिति कहनी चाहिये। अवधिदर्शनवालोंका भंग अवधिज्ञानियोंके समान है। लेश्यामार्गणाके अनुवादसे कृष्णलेश्या में प्रयोगकर्म और समवधानकर्मका अन्तरकाल कितना है? नाना जीवों और एक जीवकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है । अधःकर्मका अन्तरकाल कितना है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है ' एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक तेतीस सागर है । यथा- एक तिर्यंच या मनुष्य X अ-आ-का-ताप्रतिषु त्रुटितोऽयं कोष्ठकस्थ: पाठो मप्रतितोतऽत्र योजित ! Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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