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________________ १८) प्रस्तावना भावप्रकृति-- प्रकृतिनिक्षेपका चौथा भेद भावप्रकृति है। भावका अर्थ पर्याय है। इसके दो भेद हैं-- आगमभावप्रकृति और नोआगमभावप्रकृति । आगमभावप्रकृतिमें प्रकृतिविषयक स्थित-जित आदि अनेक प्रकारके शास्त्रोंका जानकार और उनके वाचना, पृच्छना आदि अनेक प्रकारके उपयोगसे युक्त आत्मा लिया गया है। जब तक कोई जीव प्रकृति विषयका प्रतिपादन करनेवाले स्थित-जित आदि शास्त्रोंको जानते हुए भी उन शास्त्रोंकी वाचना, पृच्छना, प्रतीच्छना और परिवर्तना आदि करता है तब तक वह आगमभावप्रकृति कहलाता है; यह उक्त कथनका तात्पर्य हैं। तथा नोआगमभावप्रकृतिमें वर्तमान पर्याययुक्त वह वस्तु ली गई है। यथा- सुर, और असुर और नाग । जो अहिंसा आदिके अनुष्ठान में रत हैं वे सुर हैं, इनसे भिन्न असुर हैं। तथा जो फणसे उपलक्षित हैं वे नाग हैं आदि। इसमें पर्यायकी मुख्यता है। इस प्रकार प्रकृतिनिक्षप नामादिकके भेदसे चार प्रकारका है। उनमें से यहां किसकी मुख्यता है, इस प्रश्नको ध्यान में रखकर सूत्रकारने बतलाया है कि यहां कर्मप्रकृतिकी मुख्यता है । वीरसेन स्वामीने इसकी टीका करते हुए कहा है कि सूत्रकारने 'यहां कर्मप्रकृतिकी मुख्यता है' यह वचन उपसंहारको ध्यान में रखकर कहा है। वैसे यहां नोआगमद्रव्यप्रकृति और नोआमगभावप्रकृति इन दोनोंकी मुख्यता है। वीरसेन स्वामीके ऐसा कहनेका कारण यह है कि आगे केवल कर्मप्रकृतिका ही विवेचन न होकर इन दोनोंका भी विवेचन किया गया है। यहां प्रारम्भमें १६ अनुयोगद्वारोंका नामनिर्देश किया था। किन्तु प्रकृतमें प्रकृतिनिक्षेप और प्रकृतिनयविभाषणता इन दो अधिकारोंका ही विचार किया है, शेषका विचार नहीं किया। अतएव उनके विषयमें विशेष जानकारी कराने के लिए यह कहा है- सेसं वेदणाए भंगो' । आशय यह है कि वेदनाखण्डमें जिस प्रकार वर्णन किया है तदनुसार यहां शेष अनुयोगद्वारोंका वर्णन कर लेना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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