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________________ विषय-परिचय ( १७ उपदेश सूत्रसिद्ध हैं, क्योंकि, चारों आनुपूर्वियोंके अल्पबहुत्वका विचार इन दोनों उपदेशोंका आलम्बन लेकर किया है। गोत्रकम- गोत्रकर्मका अर्थ है जीवकी आचारगत परम्परा । यह दो प्रकारकी होती है- उच्च और नीच । इसलिए गोत्रकर्मके भी दो भेद हो जाते हैं- उच्चगोत्र और नीचगोत्र । ब्राह्मण परम्परामें रक्तकी आनुवंशिकता गोत्रमें विवक्षित है और जैन परम्परामें आचारगत परम्परा विवक्षित है। इसका अभिप्राय यह है कि ब्राह्मण परम्परामें जहां उच्चत्व' और नीचत्वका सम्बन्ध जन्मसे अर्थात् माता-पिताकी जातिसे लिया गया है, वहां जैन परम्पराम . यह वस्तु सदाचार और असदाचारसे सम्बन्ध रखती है। इसी कारण वीरसेन स्वामीने अनेक प्रकारके शंका-समाधानके बाद उच्चगोत्रका लक्षण कहते समय यह कहा है कि जो दीक्षा योग्य साधु आचारवाले हैं, तथा साधु आचारवालोंके साथ जिन्होंने सम्बन्ध स्थापित कर लिया है, जिन्हें देखकर — आर्य ' ऐसी प्रतीति होती है, और जो आर्य कहे भी जाते हैं, ऐसे पुरुषोंकी सन्तानको उच्चगोत्री कहते हैं और इनसे विपरीत परम्परावाले नीचगोत्री कहलाते हैं। अन्तरायकर्म- दानशक्ति लाभशक्ति, भोगशक्ति, उपभोगशक्ति और वीर्यशक्ति ये जीवकी स्वभावगत पांच प्रकारकी शक्तियां मानी गई हैं। इन्हें पांच लब्धियां भी कहते हैं। इन्हीं पांच लब्धियोंकी प्राप्ति में जो अन्तराय करता है उसे अन्तराय कर्म कहते हैं। न्यनाधिक रूपमें सब संसारी जीवोंके अन्तराय कर्मका क्षयोपशम देखा जाता है, इसलिए अपने अपने क्षयोपशमके अनुसार प्रत्येक जीव ये पांच लब्धियां उपलब्ध होती हैं और तदनुसार इनका कार्य भी देखा जाता है। लोकमें माला, ताम्बूल आदि भोग; और शय्या, अश्व आदि उपभोग माने जाते हैं। धनादिककी प्राप्तिको लाभ गिना जाता है, और आहारादिकके प्रदान करनेको दान कहा जाता है। इन वस्तुओंका ग्रहण होता तो है कषाय और योगसे ही; पर इनके ग्रहण में जो भोग, उपभोग और लाभ भाव होता है वह अन्तराय कर्मके क्षयोपशमका फल है। इसी प्रकार आहारादिकका दान तो होता है कषायकी मन्दता या उसके अभावसे ही, पर आहारादिकके देने में जो भाव होता है वह भी दानान्तराय कर्मके क्षयोपशमका फल है। आशय यह है कि अन्तराय कर्मके क्षय और क्षयोपशमका कार्य इन भो भावोंको उत्पन्न करना है। यदि मिथ्यादृष्टि जीव है तो वह पर वस्तुओंके इन्द्रियोंके विषय होनेपर या उनके मिलनेपर उन्हें अपना भोग आदि मानता है, और यदि सम्यग्दृष्टि जीव है तो वह स्वके आधारसे स्वमें ही अपने भोगादिकको मानता है । भोगादि रूप परिणाम स्वमें हो या परमें, यह तो सम्यक्त्व और मिथ्यात्वका माहात्म्य है। यहां तो केवल आत्मामें ये भोगादि भाव क्यों नहीं होते हैं, और यदि होते हैं तो किस कारणसे होते हैं, इसी बातका विचार किया गया है और इसके उत्तरस्वरूप बतलाया है कि भोगादि भावके न होनेका मुख्य कारण अन्तराय कर्म है । भोगादि भाव पांच हैं, इसलिए अन्तरायके भी पांच ही भेद हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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