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________________ प्रस्तावना चारित्रमोहनीय- इसके दो भेद हैं कषायवेदनोय और नोकषायवेदनीय । कषायवेदनीयके १६ और नोकषायवेदनीयके ९ भेद हैं । इनके और कार्य स्पष्ट हैं । आयुकर्म- जो नारक आदि भवधारणका कारण कर्म है उसे आयुकर्म कहते हैं । भव अन्य कर्मके उदयसे होना है । किन्तु उसमें विवक्षित समय तक रखना इस कर्मका कार्य है। भवकी तीव्रता और मन्दताके अनुसार इस कर्मकी भी तीव्रता और मन्दता जाननी चाहिए । भव मुख्यरूपसे चार है । नारकभव तिर्यन्चभव मनुष्यभव और देवभव । अतः आयुकर्मके भी चार ही भेद हैं - नारकायु, तिथंचायु, मनुष्यायु और देवायु । नामकर्म- जो जीवकी नारक आदि नाना अवस्थाओं और शरीर आदि नाना भेदोंके होने में कारण है उसे नामकर्म कहते हैं। इसके पिण्ड प्रकृतियोंकी दृष्टिसे मुख्य भेद ब्यालीस हैं । जिस प्रकृतिका जो नाम है तदनुरूप उसका कार्य है । मात्र इत प्रकृतियोंका लक्षण करते समय जीवविपाकी और पुद्गलविपाकी प्रकृतियों के विभागको ध्यान में रखकर लक्षण करना चाहिए । आनुपूर्वीका उदय विग्रहगतिमें होता है । इसके उदयसे विग्रहगतिमें जीवप्रदेशोका आनुपूर्वीक्रमसे विशिष्ट आकार प्राप्त होता है। तात्पर्य यह है कि विग्रहगतिमें संस्थाननामकर्मका उदय नहीं होता, इसलिए जीवप्रदेशोंको विशिष्ट आकार प्रदान करना इसका मुख्य कार्य प्रतीत होता है । आनुपूर्वी क्षेत्रविपाकी प्रकृति है, इसलिए अपनी अपनी गतिके विग्रहक्षेत्रके अनुसार तो इसके भेद होते ही हैं, साथ ही जितनी प्रकारकी अवगाहनाओंका त्याग होकर अगली गति प्राप्त होती है वे सब अवगाहनायें भी आनुपूर्वीके अवान्तर भेदोंकी कारण है। यही कारण है कि प्रत्येक आनुपूर्वीके विकल्पोंका विवेचन सूत्रकारने इन दो दृष्टियोंको ध्यानमें रखकर किया है । पहले तो एक अवगाहना और क्षेत्रके कारण जितने विकल्प सम्भव है वे लिये है, फिर इन विकल्पोंको अवगाहनाके विकल्पोंसे गुणित कर दिया है और इस प्रकार प्रत्येक आनुपूर्वीके सब विकल्प उत्पन्न किये गये हैं। इस प्रकार राजुके वर्गको जगश्रेणिके असंख्यातवें भाग प्रमाण अवगाहनाविकल्पोंसे गुणित करनेपर जो लब्ध आवे उतने नरकगत्यानपूर्वीके भेद है। लोकको जगणिके असंख्यातवें भागप्रमाण अवगाहनाविकल्पोंसे गुणित करनेपर जो लब्धआवे उतने तिर्यग्गत्यानुपूर्वी के विकल्प हैं । पैतालीस लाख योजन बाहल्यवाले राजुवर्गको जगश्रेणिके असंख्यातवें भागप्रमाण अवगाहनाविकल्पोंसे गुणित करनेपर जो लब्ध आवे उतने मनुष्यगत्यानुपुर्वीके भेद होते हैं । और नौ सौ योजन बाहल्यरूप राजुप्रतरको जगणिके असंख्यातवे भाग प्रमाण अवगाहनाविकल्पोंसे गुणित करनेपर जो लब्ध आवे उतने देवगत्यानुपूर्वीके अवगाहनाविकल्प होते हैं । यहां पैतालीस लाख योजन बाहल्य रूप राजुप्रतरको जगश्रेणिके असख्यातवें भागप्रमाण अवगाहनाविकल्पोंसे गुणित करने पर मनुष्यगत्यानुपूर्वी के कुल भेद उत्पन्न होते हैं, एक ऐसा उपदेश भी उपलब्ध होता है । इस प्रकार इन दो उपदेशों से प्रथम उपदेशके अनुसार नरकगत्यानुपूर्वीके भेद सबसे कम प्राप्त होते हैं और दूसरे उपदेशके अनुसार मनुष्यगत्यानुपूर्वीके भेद सबसे कम प्राप्त होते हैं। ये दोनों ही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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