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________________ विषय-परिचय मतिज्ञानपूर्वक होता है, इसलिए उसके पहले दर्शन नहीं होता; यह स्पष्ट ही है। इसी प्रकार मन:पर्ययज्ञान भी मतिज्ञानपूर्वक होता है, इसलिए उसके पहले भी दर्शन नहीं होता, यह भी स्पष्ट है । शेष रहे तीन ज्ञान, सौ इनमें मतिज्ञान पांच इन्द्रियों और मनके निमित्तसे होता है। उसमें भी चाक्षुष ज्ञानको मुख्य मानकर दर्शनका एक भेद चक्षुदर्शन कहा गया है। शेष इन्द्रियों और मनकी मुख्यतासे दूसरे दर्शनका नाम अचक्षुदर्शन रखा है। अवधिज्ञानके पहले अवधिदर्शन होता है। यद्यपि आगममें अवधिदर्शनका सद्भाव चौथे गुणस्थानसे माना गया है; इसलिये विभंगज्ञानके पहले कौनसा दर्शन होता है, यह शंका होती है जो वीरसेन स्वामीके सामने भी थी। पर वीरसेन स्वामीने विभंगज्ञानके पहले होनेवाले दर्शनको अवधिदर्शन ही माना है । केवलज्ञानके साथ जो दर्शन होता है उसे केवलदर्शन कहते हैं। इस प्रकार दर्शन चार है, अतः इनको आवरण करनेवाले चार दर्शनावरण और निद्रादिक पांच, कुल नौ दर्शनावरण कर्म माने गये हैं। वेदनीय- जो आत्माको सुख और दुःखका वेदन कराने में सहायक है उसे वेदनीय कर्म कहते हैं। इसके सातावेदनीय और असातावेवनीय ये दो भेद हैं । सात परिणामका कारण सातावेदनीय और असाता परिणामका कारण असातावेदनीय कम है । यहांपर वीरसेन स्वामीने दुःखके प्रतिकारमें कारणभत द्रव्यका संयोग कराना और दुःखको उत्पन्न करनेवाले कर्मद्रव्यकी शक्तिका विनाश करना भी सातावेदनीय कर्मका कार्य माना है। मोहनीय कर्म- जो मोहित करता है वह मोहनीय कर्म है। परको स्व समझना, स्व और परमे भेद न करना. स्व को परका कर्ता मान इष्टानिष्ट करनेके लिए या उसे ग्रहण करनेके लिए उद्यत होना, और गृहीत वस्तुको स्व म:नकर उसका संग्रह करना आदि यह सब मोहका कार्य है । इसके दो भेद है - दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय । दर्शनमोहनीयके उदयमें 'स्व' की प्रतीति नह होती या 'पर' में 'स्व' की बुद्धि होती है और चारित्रमोहनीयके उदयमें परका ग्रहण और उसमें विविध प्रकारके भाव होते हैं । दर्शनमोहनीय- यह मूलमें एक है, अर्थात् बन्ध केवल मिथ्यात्वका ही होता है । और अनादि काल से जब तक जीव मिथ्यादृष्टि रहता है तब तक एक मिथ्यात्वकी ही सत्ता रहती है, फल भी इसीका भोगना पडता है। किन्तु प्रथम बार सम्यक्त्वके होनेपर यह मिथ्यात्व कर्म तीन भागोंमें बट जाता है- मिथ्यात्व, सम्यगमिथ्यात्व और सम्यकप्रकृति । नामानुसार कार्य भी इनके अलग अलग हो जाते हैं । मिथ्यात्वके उदयसे जीव मिथ्यादृष्टि ही रहता हैं, सम्यमिथ्यात्वके उदयसे सम्यग्मिथ्यादष्टि होता हैं और सम्यक्त्वप्रकृतिके उदयसे सम्यग्दर्शन में दोष लगाता है । आगे दर्शनमोहनीयकी क्षपणा होने तक मिथ्यात्वकी सत्ता तो नियमसे बनी रहती है, परन्तु शेष दोषकी सत्ता मिटती-बनती रहती है । पल्यके असंख्यातवें भाग कालसे अधिक समय तक यदि मिथ्यात्वमें रहता है तो इनकी सत्ता नहीं रहती और इस बीच या नय सिरसे सम्यग्दृष्टि हो जाता है तो इनकी सत्ताका क्रम या तो चालू हो जाता है या पुतः प्राप्त हो जाती हैं । हां दर्शनमोहनीयकी क्षपणाके बाद इनकी सत्ता नियमसे नहीं रहती, यह निश्चित है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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