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________________ ५, ५, ५९. ) पयडिअणुओगद्दारे ओहिणाणखेत्त-कालपरूवणा (३०५ गलादीणं गहणं कायव्वमिदि गरूवदेसादो। एदमंगलमसंखेज्जखंडाणि कायव्वं । तत्थ एगखंडमेत्तं जस्स ओहिणाणस्स ओहिणिबद्धखेत्तं घणागारेण दुइज्जमाणो* होदि सो कालदो आवलियाए असंखेज्जविभागं जाणदि । कुदो? साभावियादो । आवलियाए असंखेज्जविभागे काले तीदाणागयं च दव्वं जाणदि ति भणिदं होदि । ओहिणाणखेत्त-कालाणमेसो एगो चेव कि वियप्पो होदि आहो अण्णो वि अस्थि त्ति पुच्छिदे दो वि संखेज्जे त्ति भणिदं। खेत्त-काला दो वि संखेज्जदिभागमेत्ता वि होंति ति एत्थ संबंधो कायवो । केसि संखेज्जदिभागमेत्ता? अंगुलस्स आवलियाए च । कुदोवगम्मदे ? अहियाराणवृत्तीदो । खेत्तदो अंगुलस्स संखेज्जविभागं जाणंतो कालदो आवलियाए संखेज्जदिमागं* चेव जाणदि त्ति भणिदं होदि । कुदो? साभावियादो। खेत्तदो अंगुलं जाणंतो कालदो आवलियाए अंतो जाणदि । एत्थ अंगुलमिदि वृत्ते पमाणघणंगुलं घेत्तव्वं । आवलियंतो त्ति भणिदे देसूणावलिया घेत्तव्वा । जस्स ओहिणाणिस्स ओहिणिबद्धखत्तं धणागारेण दुइवं संतमंगलपुधत्तं होदि सो कालदो सगलमावलियं जाणदि । आदिका ग्रहण करना चाहिये, ऐसा गुरुका उपदेश है । इस अंगुलके असंख्यात खण्ड करने चाहिए । उनमेंसे एक खण्डमात्र जिस अवधिज्ञानका अवधिसे सम्बन्ध रखनेवाला क्षेत्र धनप्रतर आकाररूपसे स्थापित करनेपर होता है वह कालकी अपेक्षा आवलिके असंख्यातवे भागको जानता है, क्योंकि, ऐसा स्वभाव है । आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण कालके भीतर अतीत और अनागत द्रव्यको जानता है, यह कथनका तात्पर्य हैं । अवधिज्ञावके क्षेत्र और कालका क्या यह एक ही विकल्प होता है या अन्य भी विकल्प है, ऐसा पूछनेपर दो वि संखेज्जा' ऐसा कहा है । क्षेत्र और काल ये दोनों ही संख्यातवें भागप्रमाण भी होते हैं, ऐसा यहां सम्बन्ध करना चाहिए। शंका- किनके संख्यातवें भागप्रमाण होते हैं ? समाधान- अंगुलके और आवलिके । - यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान- अधिकारकी अनुवृत्ति होनेसे । अंगुल और आवलिका यहाँ अधिकार है, उनकी अनुवृत्ति होनेसे यह जाना जाता हैं। क्षेत्रकी अपेक्षा अंगुलके संख्यातवें भागको जाननेवाला कालकी अपेक्षा आवलिके संख्यातवें भागको ही जानता है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है; क्योंकि ऐसा स्वभाव है। क्षेत्रकी अपेक्षा एक अंगुलप्रमाण क्षेत्रको जाननेवाला कालकी अपेक्षा आवलिके भीतर जानता है । यहापर — अंगुल ' ऐसा कहनेपर प्रमाणांगुल लेना चाहिए और 'आवलियंतो' ऐसा कहनेपर कुछ कम एक आवलि लेनी चाहिए। जिस अवधिज्ञानीका अवधिसे सम्बन्ध रखनेवाला क्षेत्र धनप्रतराकाररूपसे स्थापित करनेपर अंगुलपृथक्त्व प्रमाण होता है वह कालकी अपेक्षा एक सम्पूर्ण आवलिकी बात जानता है । *अ-आ-काप्रतिषु — ठइज्जमाणे ' इति पाठः । * अ-आप्रत्योः ' असंखे० भाग', ताप्रतौ ' (अ) संखे० भाग 'इति पाठः। ( काप्रती त्रुटितोऽत्र पाठः ) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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