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________________ ५, ५, ४८. ) पयडिअणुओगद्दारे सुदणाणभेदपरूवणा ( २७१ वड्डमाणं मच्छदि जाव एगक्खरेणणपुग्वसुदणाणे त्ति । पुणो एदस्सुवरि एगक्खरे वडिदे पुव्वसुदणाणं होदि । किं पुत्वं णाम? पुव्वगयस्स जे उप्पादपुव्वदिचोद्दसअहियारा तेसि पुध पुध पुव्वसुदणाणमिदि सण्णा। पुणो एक्स्स उपायपुग्वसुदणाणस्सुवरि एगक्खरे वडिने पुख्वसमाससुदणाणं होवि । एवमेगेगक्खरुत्तवड्ढीए पुढबसमाससुदणाणं वड्डमाणं गच्छदि जाव अंगपविलैंगबाहिरसगलसुदणाणक्खराणि सव्वाणि वडिदाणि ति। एवं पुव्वाणपुवीए सुदणाणस्स वीसदिविधा परूवणा कदा। एवमणुसारिबुद्धिविसिट्टजीवस्स सुदणाणेण सह परिणमणविहाणं* समुद्दिळं। संपहि पडिसारिबुद्धिविसिट्ठजीवाणं सुदणाणपज्जाएण परिगमणविहाणं भणिस्सामो। तं जहा-लोगबिंदुसारपुवस्स जं चरिमभावक्खरं तमणंताणतखंडाणि कादूण तत्थ एगखंडं सुहमणिगोदलद्धिअपज्जत्तयस्स जहणयं लद्धिअक्खरं होदि। पुणो तस्सुवरि अणंतभागे वड्डिदे पज्जयसुदणाणं होदि। पुणो एदस्सुवरि अगंतभागुतरं वडिदे पज्जयसमाससुदणाणं होदि । पुगो एवमणंतभागवडि- असंखेज्जमागवडि- -संखेज्जभागवडिसंखेज्जगुणवड्डि--असंखेज्जगणवडि- अणंतगुणवडिकमेण असंखेज्जलोगमेत्त-- छट्ठाणाणि पज्जयसमाससुदणाणसरूवेण गच्छत्ति जाव एगपेक्खेवेणूणएगवखरे त्ति । पुणो एदस्सुवरि एगपक्खेवे वढिदे लोगबिंदुसारपुव्वस्त एक एक अक्षरकी वृद्धि होते हुए एक अक्षरसे न्यून पूर्वश्रुतज्ञानके प्राप्त होने तक वस्तुसमास श्रुतज्ञान होता है । पुनः इसके ऊपर एक अक्षरकी वृद्धि होनेपर पूर्व श्रुतज्ञान होता है। शंका - पूर्व यह किसकी संज्ञा है ? समाधान- पूर्वगतके जो उत्पादपूर्व आदि चौदह अधिकार है उनकी अलग अलग पूर्व श्रुतज्ञान संज्ञा है। पुन: इस उत्पादपूर्वक श्रुतज्ञानके ऊपर एक अक्षरकी वृद्धि होनेपर पूर्वसमास श्रुतज्ञान होता है । इस प्रकार उत्तरोत्तर एक एक अक्षरको वृद्धि होते हुए अंगप्रविष्ठ और अंगबाह्य रूप सकल श्रुतज्ञानके सब अक्षरोंकी वृद्धि होने तक पूर्वसमास श्रुतज्ञान होता है। इस प्रकार निपूर्वी के अनुसार श्रुतज्ञानकी वीस प्रकारकी प्ररूपणा की। इस प्रकार अनसारी बुद्धि विशिष्ट जीवके श्रुतज्ञानके साथ परिणमन करने की विधि कही। ___ अब प्रतिसारी बुद्धि विशिष्ट जीवोंके श्रुतज्ञान पर्यायके साथ परिणमन करनेकी विधी कहते हैं यथा- लोकबिन्दुसारपूर्वका जो अन्तिम भावाक्षर है उसके अनन्तानन्त खण्ड करके उनमेंसे एक खण्डप्रमाण सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तकका जघन्य लब्ध्यक्षर नामका श्रुतज्ञान होता है। पुनः उसके ऊपर अनन्तभाग वृद्धिके होनेपर पर्याय श्रुतज्ञान होता है। पुनः इसके ऊपर उत्तरोत्तर अनन्तभाग वृद्धिके होनेपर पर्यायसमास श्रुतज्ञान होता है। पुन: इस प्रकार अनन्तभागबृद्धि, असंख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि और अनन्तगुणवृद्धिके क्रमसे एक प्रक्षेपसे न्यून एक अक्षर श्रुतज्ञानके प्राप्त होने तक असंख्यात लोकमात्र छह वृद्धि स्थानरूप पर्यायसमास श्रुतज्ञान होता है । पुनः इसके ऊपर एक प्रक्षेपकी वृद्धि होनेपर लोकबिन्दुसार पूर्वका * अ-आ-काप्रतिषु — विहीणं ' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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