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________________ छक्खंडागमे वग्गणा - खंड ( ५, ५, ४६. २५८ ) पुणो आ३यारे निरुद्धे सद्विसंकलमेत्ता आइयारस्स तिसंजोगभंगा उप्पज्जंति । पुणो इकारे निरुद्धे एगूणसट्ठिसंकलणमेत्ता इकारस्स तिसंजोगभंगा उष्पज्जंति । एवमीकारादिअक्खराणं पत्तेयं पत्तेयं अट्ठावण्ण-सत्तावण्ण- छप्पण्णादीर्ण संकलणमेत्ता भंगा उप्पज्जेति । एवं उप्पण्ण सव्वसंकलणासु मेलाविदासु चउपद्विअक्खराणं तिसंजोगभंगा सव्वे उप्पज्जंति तेसि पमाणमेदं ४१६६४ । अधवा 1 एकोत्तरपदवृद्धो रूपोनस्त्ववहृतश्च रूपाद्यैः । प्रचयहतः प्रभवयुतो गच्छोद्धान्योन्य सगुणितः । १७ ।। एदेण सुत्ते इच्छिद - इच्छिदसंजोगभंगा आणदव्वा । संपहि चउसट्ठिअक्खराणं चदुसंजोग भंगपमाणे उप्पाइज्जमाणे एक्कसट्टिचदुब्मागेण ४१६६४ एदेसु तिसंजोग भंगेसु गुणिदेसु चउसट्ठिअक्खराणं सव्वे चदुसंजोगभंगा उप्पज्जति । तेसि पमाणमेदं ६३५३७६० । एवं पंचसंजोग छसंजोगादिभगे उप्पादिय सव्त्रेसु एकट्ठकदेसु पुव्वपाइदरूवणेयद्विमेत्ताणि संजोगक्खराणि, तेत्तियमेत्ताणि चेव तेहितो उप्पण्णसुबणाणाणि तदावरणाणि च उप्पज्जति । दुपहुडी मक्खराणमेयट्ठे वट्टमानाणं संजोगो होदु णाम । ण च एगसंजोगो घडदे, दुस्स संजोगस्स एक्aम्मि संभवविरोहादो ण एस दोसो, दोष्णमयाणमेयट्ठे वट्टमाणाणहोते हैं । पुनः आ३कारके विवक्षित होनेपर साठके सकलनमात्र ( ३x६१ – १८३०) आश्कारके त्रिसंयोगी भंग उत्पन्न होते हैं । पुनः इकारके विवक्षित होनेपर उनसठ के संकलन मात्र ( ३x६० = १७७०) इकारके त्रिसंयोगी भंग उत्पन्न होते हैं । इसी प्रकार ईकार आदि अक्ष में प्रत्येक प्रत्येकके यथाक्रमसे अट्ठावन सत्तावन और छप्पन आदि संख्याओंके संकलनमात्र भंग उत्पन्न होते हैं । इस प्रकार उत्पन्न हुई सब संकलनाओंके मिलानेपर चौंसठ अक्षरोंके सब त्रिसंयोगी भंग उत्पन्न होते हैं। उनका प्रमाण यह है- ४१६६४ | अथवा वृद्धिगत एकोत्तर पदको एक आदिसे भाजित करके प्रचयसे गुणित करे और प्रभवको जोड दे । पुनः गच्छ प्रमाण स्थानोंको परस्पर गुणित करें। एसा करने से इच्छित संयोगी भंग प्राप्त होते हैं ( ? ) ।। १७ ।। इस सूत्र द्वारा इच्छित इच्छित संयोगी भंग ले आने चाहिय । अब चौंसठ अक्षरोंके चार संयोगी भंगोंका प्रमाण उत्पन्न करानेपर इकसठ बटे चारसे ४१६६४ इन त्रिसंयोगी भंगोंके गुणित करनेपर चौंसठ अक्षरोंके सब चार सयोगी भग उत्पन्न होते हैं । उनका प्रमाण यह है - ६३५३७६ । इसी प्रकार पांचसंयोगी और छह सयोगी आदि भंग उत्पन्न करा कर सब भंगोंको एकत्रित करनेपर पहले उत्पन्न कराये गये एक कम एकट्टीमात्र संयोगाक्षर और उनके निमित्त से उत्पन्न हुए उतने मात्र ही श्रुतज्ञान तथा उतने ही श्रुतज्ञानावरण कर्म उत्पन्न होते हैं । शंका- एक अर्थ में विद्यमान दो आदि अक्षरोंका संयोग भले ही होवे, परन्तु एक अक्षर का संयोग नहीं बन सकता; क्योंकि संयोग द्विस्थ होता है, अतः उसे एकमें मानने में विरोध आता है ? ताप्रती ' अथ इति पाठ: । इति पाठ: 1 Jain Education International ताप्रती ६३५३ आप्रतो 'विसंजोग' ताप्रती ' वि ( ति ) संजोग ) ७६ इति पाठ: ] For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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