SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 296
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५, ५, ४६. ) पयडिअणुओगद्दारे अक्ख रपमाणपरूवणा ( २५९ मेयक्खरसरूवेण परिणामवलंभादो। 'या श्रीः सा गौः ' एदमसंजोगेयक्खरस्स उदाहरणं ण होदि; संजुत्ताणेगक्खरेहि णिफण्णत्तादो । ण च एगसंजोगक्खरस्स वि उदाहरणं, भिण्णजादिअक्ख रसजोगस्स एयक्खरसंजोगत्तविरोहादो । तहा 'वीरं देवं नित्यं वंदे, वृषभं वरदं सततं प्रणमे, वीरजिनं वीतभयं लोकगरुं नौमि सदा, कनकनिभं शशिवदनं अजितजिनं शरणमिये' इच्चेवमादिवियहिचारो दरिसावेयव्वो। पुणो कधं होदि त्ति भणिदे अक्खराणं संजोगमसंजोगेदूण जदा अक्खराणि चेव पादेक्कं विवक्खियाणि होति तदा सुदणाणक्खराणं पमाणं चउसट्ठी होदि, एदेहितो पुघभदसंजोगक्खराणमभावादो । सुदणाणं पि चउसट्टिमेत्तं चेव होदि, संजुत्तासंजुत्तभावेण दिदसुदणाणकारणअक्खराणं चउसद्विभावदसणादो। तदावरणं पि तत्तियं चेव, आवरणिज्जभेदेण आवरणभेदुवलंभादो । अक्खरसमुदायादो समुप्पज्जमाणसुदणाणं कधमेगक्खरादो समुप्पज्जदि? पादेक्कमक्खराणं तदुप्पायणसत्तिअभावे समुदायादो वि* तदुप्पत्तिविरोहादो। बज्झेगेगत्थविसयविण्णाणुप्पत्तिक्खमो अक्खरकलाओ संजोगक्खरं णाम, जहा 'या श्रीः सा गौः' इच्चेवमादि । एदाणि संजोगक्खराणि समाधान- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि एक अर्थमें विद्यमान दो अकारोंका एक अक्षररूपसे परिणमन देखा जाता है। या श्री: सा गो:' यह असंयोगी एक अक्षरका उदाहरण नहीं हैं, क्योंकि, यह संयुक्त अनेक अक्षरोंसे निष्पन्न हुआ है । तथा यह एक संयोगाक्षरका भी उदाहरण नहीं है, क्योंकि, भिन्न जातिके अक्षरोंके संयोगको एक अक्षरसंयोग मानने में विरोध आता है । तथा ' वीरं देवं दे, वृषभं वरदं सततं प्रणमे, वीरजिनं वीतभय लोकगरुं नौमि सदा, कनकनिभं शशिवदनं अजितजिनं शरण मिये' इत्यादिके साथ व्यभिचार भी दिखाना चाहिये। फिर एकसयोगी भंग कैसे प्राप्त होता है, ऐसा पूछनेपर उत्तर देते हैं कि अक्षरोंके संयोगकी विवक्षा न करके जब अक्षर ही केवल पृथक् पृथक् विवक्षित होते हैं तब श्रुतज्ञानके अक्षरोंका प्रमाण चौंसठ होता है, क्योंकि, इनसे पृथग्भूत अक्षरोंके संयोगरूप अक्षर नहीं पाये जाते । श्रुतज्ञान भी चौंसठ प्रमाण ही होता है क्योंकि, संयुक्त और असंयुक्त रूपसे स्थित श्रुतज्ञानके कारणभूत अक्षर चौंसठ ही देखे जाते हैं । तदावरण कर्म भी उतने ही होते है, क्योंकि आवरणीयके भेदसे आवरण में भद देखा जाता हैं। शंका- अक्षरोंसे समुदायसे उत्पन्न होनेवाला श्रुतज्ञान एक अक्षरसे कैसे उत्पन्न होता है? ___समाधान-- कारण कि प्रत्येक अक्षरोंमें श्रुतज्ञानके उत्पादनकी शक्तिका अभाव होने पर उनके समुदायसे भी उसके उत्पन्न होनेका विरोध है। बाह्य एक एक अर्थको विषय करनेवाले विज्ञानकी उत्पत्तिमें समर्थ अक्षरोंके समुदायको सयोगाक्षर कहते हैं । यथा- 'या श्रीः सा गौः' इत्यादि , ये संयोगाक्षर इनसे उत्पन्न हुए ४ अ-आ-काप्रतिषु ' भाग ' इति पाठः । * आप्रती · समुदायो वि , ताप्रती समुदायो ( यादो) वि ' इति पाठ: 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy