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________________ २६०) छक्खंडागमे वग्गणा खंड तज्जणिद सुदणाणाणि तावरणाणि च रूवणेयट्टिमेताणि । जदि वि एगसंजोगक्ख. रमणेगेसु अत्थेसु अक्खरवच्चासावच्चासबलेण वट्टदे तो वि अक्खरमेक्कं चेव, अण्णोणमवेक्खिय जाणकज्जजणयाणं भेदाणुववत्तीदो। __ तस्सेव सुदणाणावरणीयस्स कम्मस्स वीसदिविधा परूवणा कायव्वा भवदि ।। ४७ ॥ पुव्वं संजोगक्खरमेत्ताणि सुदणाणावरणाणि परूविदाणि। संपहि ताणि चेव सुदणाणावरणाणि वीस दिविधाणि ति भण्णमाणे एक्स्स सुत्तस्स पुद सुत्तेण विरोहो किण्ण जायदे ? ण एस दोसो, भिण्णाहिप्पायत्तादो। पुग्विल्लसुत्तमक्खरणिबंधणभेदपरूवयं, एदं पुण खओवसमगदभेदमस्सिदूण आवरणभेदपरूवयं तम्हा दोसो पत्थि त्ति घेत्तव्वो। वीसदिविधसुदणाणावरणाणमपरूवणमुत्तरगाहासुत्तं भणदि पज्जय-अक्खर-पद-संघादय-पडिवत्ति-जोगवाराई। पाहुडपाहुड-वत्थू पुत्व समासा य बोद्धव्वा* ॥ १॥ श्रुतज्ञान और तदावरण कर्म ये एक कम एकट्ठी प्रमाण होते हैं। यद्यपि एक संयोगाक्षर अनेक अर्थों में अक्षरोंके उलट-फेरके बलसे रहता है तो भी अक्षर एक ही है, क्योंकि, एक दूसरेको देखते हुए ज्ञानरूप कार्यको उत्पन्न कराने की अपेक्षा उनमें कोई भेद नहीं पाया जाता। उसी श्रतज्ञानावरणीय कर्मकी वीस प्रकारको प्ररूपणा करनी चाहिये ।।४७॥ शंका- पहले जितने सयोगक्षर होते हैं उतने श्रुतज्ञानावरण कर्म कह आये हैं। अब वे ही श्रुतज्ञानावरण कर्म बीस प्रकारके होते हैं, ऐसा कथन करनेपर इस सूत्रका पूर्व सूत्रसे विरोध क्यों नहीं होता ? समाधान- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, भिन्न अभिप्रायसे यह सूत्र कहा गया है। पूर्व सूत्र अक्षरनिमित्तक भेदोंका कथन करता है, परन्तु यह सूत्र क्षयोपशमके भेदोंका आलम्बन लेकर आवरणके भेदोंका कथन करता है। इसलिये कोई दोष नहीं है, ऐसा यहां ग्रहण करना चाहिये। अब बीस प्रकारके श्रुतज्ञानावरणके नामोंका कथन करनेके लिये आगेका गाथासूत्र कहते हैं पर्याय, पर्यायसमास, अक्षर, अक्षरसमास, पद, पदसमास, संघात, संघातसमास, प्रतिपत्ति, प्रतिपत्तिसमास, अनुयोगद्वार, अनुयोगद्वारसमास, प्राभूतप्राभूत, प्राभूतप्राभूतसमास, प्राभूत, प्राभृतसमास, वस्तु, वस्तुसमास, पूर्व और पूर्वसमास; ये श्रुतज्ञानके बीस भेद जानने चाहिये ।। १॥ *ताप्रती 'संजोगक्खराणि । तज्जणिद- ' इति पाठः । अ-आ-काप्रतिष 'सुदणाणाण ' ताप्रती ' सुदणाणं ' इति पाठः । * पज्जायक्खरपदसंघादं पडित्तियाणिओगं च । दुगवारपाहुडं च य पाहुडयं वत्थ पूव्वं च || तेसिं च समासेहि य वीसविहं वाह होदि सूदणाणं । आवरणस्स वि भेदा तत्तियमेत्ता हवंति ति ll गो. जी. ३१६-३१७. Jain Education International - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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