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________________ ४०) छक्खंडागमे वग्गणा-खंडं ( ५, ४, ८. त्ताभावादो च । थंभादिसु सरिसत्तमुवलब्भदि त्ति चे-ण, भिण्णदेसट्टियाणं भिण्णारंभयदव्वाणं सरिसत्तविरोहादो। उजुसुदस्स पज्जवट्टियस्स कधं दव्वादिणिक्खेवा संभवंति? ण, असुद्धे वंजणपज्जवट्टियउजुसुदणए तेसिं संभवस्स विरोहाभावादो। सद्दणओ णामकम्मं भावकम्मं च इच्छदि ॥ ८ ।। सद्दणए सुद्धपज्जवट्रिए कधं णामणिक्खेवो? ण, णामेण विणा ववाहरो ण घडदि त्ति तस्स अत्थित्तब्भुवगमादो। एवं णयविभासणा गदा । जं तं णामकम्म णाम ।। ९ ।। तस्स अत्थविवरणं कस्सामो-- तं जीवस्स वा अजीवस्स वा जीवाणं वा अजीवाणं वा जीवस्स च अजोवस्स च जीवस्स च अजीवाणं च जीवाणं च शंका- स्तम्भ आदिमें समानता देखी जाती है ? समाधान- नहीं, क्योंकि, जो पदार्थ भिन्न देश में स्थित है और जिनके निर्माण सम्बन्धी मूल द्रव्य भिन्न है उनको सदृश मानने में विरोध आता है । शंका- जब कि ऋजुसूत्र नय पर्यायार्थिक है, तब उसमे द्रव्यादि निक्षेप कैसे सम्भव हो सकते हैं ? समाधान- नहीं, क्योंकि, अशुद्ध व्यञ्जनपर्यायार्थिक ऋजसूत्र नय में उनको विषयरूपमे सम्भव मानने में कोई विरोध नहीं आता। विशेषार्थ- स्थापना निक्षेपमें वह यह है' इस प्रकारके संकल्पकी मुख्यता रहती है। किन्तु ऋजसूत्र नय न तो दोको ही ग्रहण करता है, और न औपचारिक सादृश्यको ही। यही कारण है कि स्थापना निक्षेप ऋजुसूत्रका विषय नहीं कहा है । द्रव्य निक्षेप व्यञ्जन पर्यायकी प्रधानतासे अशुद्ध ऋजुसूत्रका विषय कहा गया है। शब्दनय नामकर्म और भावकर्मको स्वीकार करता है ॥८॥ शंका- शुद्ध पर्यायाथिक शब्दनयका नामनिक्षेप विषय कैसे हो सकता है ? समाधान- नहीं, क्योंकि नामके विना किसी प्रकारका व्यवहार घटित नहीं होता, इसलिये शब्दनयके विषयरूपसे नामनिक्षेपका अस्तित्व स्वीकार किया गया है। इस प्रकार नयविभाषणता अधिकार समाप्त हुआ। अब नामकर्मका अधिकार है ॥ ९ ॥ इसके अर्थका खुलासा करते हैं एक जीव, एक अजीव, नाना जीव, नाना अजीव, एक जीव और एक अजीव,एक जीव और नाना अजीव, नाना जीव और एक अजीव तथा नाना जीव और नाना अजीव, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org .
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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